प्रयागराज, नौ दिसंबर (भाषा) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि एक पीड़ित को अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 के तहत जो अधिकार प्राप्त हैं उनका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति अनिल कुमार ने अपीलकर्ता अजनान खान और फुरकान इलाही को जमानत देते हुए यह टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि प्राथमिकी दर्ज कराने में नौ वर्षों की देरी की गई जबकि पीड़िता स्वयं एक अधिवक्ता है।
तथ्यों के मुताबिक, पीड़िता ने इस वर्ष प्राथमिकी दर्ज कराते हुए आरोप लगाया कि 2016 में फुरकान उससे मिला, उसे एक होटल में ले गया और उसके बाद वह उसे अपने दोस्त अजनान खान के घर ले गया।
पीड़िता ने आरोप लगाया कि जहां अजनान ने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया, फुरकान ने उसके साथ दुष्कर्म किया। फुरकान ने उसे आश्वासन दिया कि वह उससे विवाह करेगा, इसलिए वह इस मामले में चुप रही।
पीड़िता ने आरोप लगाया कि आरोपी ने शादी का बहाना बनाकर उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए रखा और उसे गई बार गर्भपात के लिए गोलियां खिलाई।
वहीं अपीलकर्ताओं के वकील ने कहा कि इस मामले में नौ वर्ष बाद प्राथमिकी दर्ज कराई गई जो यह दर्शाने के लिए पर्याप्त आधार है कि यह मामला कानूनी परामर्श के बाद दर्ज कराया गया। पीड़िता स्वयं एक अधिवक्ता है और उसका लंबा आपराधिक इतिहास है।
उन्होंने कहा कि पीड़िता ने अपीलकर्ताओं और कई अन्य लोगों के खिलाफ कई मामले दर्ज कराए हैं। इसके अलावा, मौजूदा प्राथमिकी तब दर्ज कराई गई जब एक अपीलकर्ता ने इस वर्ष अगस्त में पीड़िता के खिलाफ पहले ही एक प्राथमिकी दर्ज कराई थी।
अदालत को अवगत कराया गया कि पीड़िता ने अपने खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराए जाने के महज 20 दिनों बाद यह प्राथमिकी दर्ज कराई।
हालांकि, सरकारी अधिवक्ता ने दलील दी कि यह देरी शादी के झूठे वादे की वजह से हुई और आरोपी पीड़िता को मुकदमा वापस लेने की धमकी दे रहे थे।
पीड़िता के आचरण को ध्यान में रखते हुए अदालत ने पाया कि अपीलकर्ता जमानत पर रिहा होने के पात्र हैं। हालांकि, अदालत ने एससी-एसटी अधिनियम के संबंध में 24 नवंबर को दिए अपने आदेश में कहा कि इस कानून के तहत प्रदत्त अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
भाषा सं राजेंद्र शोभना
शोभना