अक्टूबर फिल्म नहीं कविता है।
मैं फिल्म समीक्षक तो नहीं, लेकिन फिल्म प्रेमी जरूर हूं, शायद ही कोई फिल्म छोड़ता हूं। मैं फिल्में केवल मनोरंजन के लिए देखता हूं। वैसे मेरे मन में फिल्में ज्यादा देर तक नहीं रहती, लेकिन इस इतवार मैंने फिल्म अक्टूबर देखी, जो लगता है इस अक्टूबर तक मेरा पीछा नहीं छोड़ेगी।
पहली बार ऐसा हुआ कि एंड क्रेडिट चल रहे थे,लेकिन सीट से उठने का मन नहीं हुआ। ऐसा लगा कि कुछ रह गया, कुछ फिल्म के साथ चला गया। मैं ही नहीं मेरे पास बैठा यंग लड़कियों का ग्रुप भी शिवली (बनिता संधु ) के पूरी तरह से होशो-हवास में आने का इंतजार कर रहा था। मैं और वो लड़कियां सब ये चाह रहे थे की डैन (वरुण धवन) को उसकी मुहब्बत का जवाब मिल जाए। शिवली कोमा से उठ जाए और डैन को कह दे कि वो भी उसे उतनी मुहब्बत करती है, जितना वो करता है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। शिवली चली गई जैसे हरसिंगार के फूल भी अक्टूबर महीने में खिल कर जल्दी चले जाते हैं और जल्दी मुरझा जाते हैं।
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शुजीत सरकार ने फिल्म नहीं एक कविता को पर्दे पर उतारा है। प्रेम कहानियां तो कई देखी लेकिन ऐसी निस्वार्थ प्रेम कहानी पहली बार देखी। न हीरो-हीरोइन गाना गाते हैं, न रोमांस करते हैं, बल्कि एक दूसरे को ढंग से जानते भी नहीं, फिर भी जो गजब का मौन इश्क दोनों के बीच में शुजीत ने पैदा किया है वो काबिले तारीफ है।
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वरुण धवन ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया, कि वो आज के समय के एक बेहतरीन कलाकार हैं। बनीता संधु को केवल अपनी आंखों से अभिनय करने का मौका मिला, जो उन्होंने बखूबी निभाया। बनीता की मां बनीं गीतांजलि राव को कोई कैसे याद ना रखे, गजब की ठहराव के साथ अदाकारी।
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फिल्म के केंद्र में भले ही हरसिंगार के फूल हों और शुजीत ने मुख्य किरदार का नाम भी इन्हीं फूलों पर रखा है, (हरसिंगार को बंगाली में शिवली कहते हैं) जो जल्दी मुरझा जाते हैं और केवल अक्टूबर में खिलते हैं लेकिन फिल्म की छाप फूलों जैसी नहीं है और दिल में बस गई है। काश हर किसी को ऐसी प्रेम कहानी नसीब हो।
रवि कान्त मित्तल, एडिटर इन चीफ, IBC24