(प्रज्ञा अग्रवाल, लोबॉरो विश्वविद्यालय)
लोबॉरो (ब्रिटेन), 11 दिसंबर (द कन्वरसेशन) क्या आपको कभी कार्यस्थल पर अपने सहकर्मियों के लिए एक कप चाय बनाने के लिए कहा गया है? सैमसंग ने ब्रिटेन में करीब दो हजार कर्मचारियों पर एक सर्वेक्षण कराया था जिसमें पता चला है कि अगर आप एक महिला हैं तो आपसे इस तरह के काम करने के लिए कहने की संभावना एक पुरुष की तुलना में करीब तीन गुना ज्यादा है।
महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे पुरुषों की तुलना में दफ्तर से इतर काम करें, मसलन कार्यालय के बाहर सहकर्मियों को जमा करना, उनके लिए कार्ड और तोहफे तैयार करना आदि। अगर कोई महिला इस तरह के काम के लिए मना कर भी दे, तो भी संभावना है कि उसके स्थान पर किसी और महिला को ही ऐसे काम करने के लिए कहा जाएगा।
महिलाएं इस बात को लेकर आशंकित रहती हैं कि उन्हें रूखा माना जाएगा और इसीलिए वे आसानी से इस तरह के कामों के लिए मान जाती हैं जिसके लिए उन्हें अलग से भुगतान भी नहीं किया जाता है और ऐसे काम उन्हें उनकी जिम्मेदारियों से विचलित करते हैं।
वे सोचती हैं, “ अगर मैं इसे नहीं करती हूं, तो दूसरी महिला करेगी।” महिलाओं को अपनी नाखुशी और परेशानी को छुपाना पड़ता है। वे इस तरह से पेश आती हैं कि वे खुशी से ये कर रही हैं जिसका असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। अन्य की अपेक्षाओं को पूरा करने या पेशेवर लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी की भावनाओं को नियंत्रित करने और उन्हें दबाने को ‘भावनात्मक श्रम’ कहते हैं।
अमेरिकी समाजशास्त्री अर्ली होशचाइल्ड ने 1983 में पहली बार ‘ भावनात्मक श्रम’ की अवधारणा पेश की थी जिससे उनका मतलब था कि हमारे पूंजीवादी समाज में भावनाओं का एक बाजार है और आदान प्रदान के मूल्य हैं। लोगों को जरूरत है कि वे भावनात्मक मानदंडों के साथ तालमेल बिठाने के लिए अपनी भावनाओं को काबू में रखें और अपनी भावनाओं को नियंत्रित करें ताकि उनका काम सुचारू रूप से हो सके और उन्हें उसका भुगतान मिल जाए।
‘भावनात्मक श्रम’ कभी भी लैंगिकता आधारित नहीं रहा है। लेकिन बिना भुगतान के किए जाना वाला काम जैसे दफ्तर में चाय बनाना, मुख्य रूप से महिलाओं को दिया जाता है जिन्हें अपनी भावनाओं पर काबू रखते हुए अवांछित कार्य करने पड़ते हैं।
मैंने अपनी किताब ‘हिस्टेरिकल’ में इसकी चर्चा की है। इसकी वजह लैंगिक रूढ़िवाद है जो यह मानता है कि महिलाएं ज्यादा नरम दिल वाली होती हैं और सबका ध्यान रखती हैं। इसलिए महिलाओं को चाय बनाना या तोहफे तैयार करने जैसे काम सैंपे जाते हैं और वे ऐसा दिखाती हैं कि वे ये काम करने से खुश हैं।
हमदर्दी की वजह से काम करना
जब सहानुभूति की बात आती है तो वास्तव में पुरुषों और महिलाओं के बीच थोड़ा अंतर रह जाता है। हालांकि सहानुभूति दिखाने के मामले में पुरुषों और महिलाओं की प्रेरणा के बीच अधिक अंतर है। महिलाएं अपनी सामाजिक लैंगिक भूमिकाओं और उनके अनुरूप होने की आवश्यकता के प्रति अधिक सचेत हैं – शायद अपने करियर को आगे बढ़ाने के लिए।
अच्छा माहौल बनाए रखने के लिए और भावनात्मक नियमों के अनुरूप होने के लिए हर किसी पर दबाव होता है। अश्वेत लोग इस दबाव को दूसरों की तुलना में अधिक महसूस करते हैं और उन्हें कार्यस्थल में अपनी भावनाओं को बहुत अधिक काबू में रखना पड़ता है। उन्हें कार्यस्थलों पर नस्ल के आधार पर किए जाने वाले तंज भरे व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है जिस वजह से भी उन्हें अपनी भावनाओं को काबू में रखना पड़ता है।
शिक्षण संस्थाओं में अश्वेत महिलाओं को पुरुषों व श्वेत महिलाओं की तुलना में‘भावनात्मक श्रम’ ज्यादा करना पड़ता है। शोध में पाया गया है कि अश्वेत महिला शोधार्थियों को श्वेत विद्यार्थी चुनौती देते हैं जो उन्हें कम सक्षम तथा निचले दर्ज का मानते हैं।
इस सबके बावजूद अश्वेत महिलाओं को शिक्षण संस्थानों में अपने गुस्से को काबू में रखकर खुद को पेशेवर दिखाना पड़ता है, क्योंकि गुस्सा फूटने पर उस रूढ़िवादिता को बल मिलेगा जो कहता है कि वे सक्षम और पेशेवर नहीं हैं।
घर पर
होशचाइल्ड ने ‘भावनात्मक श्रम’ की परिभाषा को घरेलू कामों तक विस्तारित नहीं किया है। मैं इससे सहमत नहीं हूं। घर में, महिलाएं अक्सर घर के रोजमर्रा के कामकाज, बच्चों की देखभाल और सभी छोटे-मोटे कार्यों की जिम्मेदारी उठाती हैं।
इन भूमिकाओं को निभाते समय, महिलाएं अक्सर इस संदेश को भी समझती हैं कि उनसे अपेक्षा की जाती है कि सबका ध्यान रखने की ज़िम्मेदारी उनकी है और उन्हें इतना रूखा नहीं लगना चाहिए – और उन्हें कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए, या गुस्सा, थकान जाहिर नहीं करनी चाहिए और न ही निराशा व्यक्त करनी चाहिए। इसलिए वे सभी तरह के असंतोष को दबा देती हैं।
हम क्या कर सकते हैं?
इसे बदलने की जिम्मेदारी पुरुषों पर भी है। उन्हें कार्यस्थल और घर में अपने आसपास की महिलाओं से उनकी अपेक्षाओं को लेकर बातचीत करनी चाहिए।
द कन्वरसेशन नोमान नरेश
नरेश