हर कोई चाहता है आत्म-सम्मान, किसी के विचार बदलने की कोशिश करते समय रखें इस बात का ध्यान

हर कोई चाहता है आत्म-सम्मान, किसी के विचार बदलने की कोशिश करते समय रखें इस बात का ध्यान

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  • Publish Date - May 5, 2024 / 01:39 PM IST,
    Updated On - May 5, 2024 / 01:39 PM IST

(कॉलिन मार्शल, सहायक प्रोफेसर, मनोविज्ञान, वाशिंगटन विश्वविद्यालय )

वाशिंगटन, पांच मई (द कन्वरसेशन) भले ही आपकी बात में कितना ही दम क्यों न हो, लेकिन किसी को समझाना-बुझाना यानी ‘पर्सुएशन’ इतना कठिन क्यों होता है?

दर्शनशास्त्री के तौर पर मैं पर्सुएशन में खासतौर पर रुचि रखता हूं। इसमें आपको न केवल यह पता होना चाहिए कि आपको किस तरह किसी को समझाना है, बल्कि यह जानना भी जरूरी है कि इसे बिना किसी हेरफेर के नैतिक रूप से कैसे किया जाए।

मैंने इस बारे में सबसे गहरी अंतर्दृष्टि जर्मन दार्शनिक इमैनुअल केंट से पाई है, जिन पर मेरा शोध केंद्रित रहा है। केंट 300 साल पहले 22 अप्रैल 1724 में जन्मे थे।

नीतिशास्त्र पर अपनी अंतिम पुस्तक “द डॉक्टरीन ऑफ वर्च्यु” में केंट लिखते हैं कि जब हम किसी अन्य के विचारों को दुरुस्त करने का प्रयास करते हैं तो हर किसी का एक निश्चित कर्तव्य होता है।

यदि हमें लगता है कि वे (विचार) गलत हैं, तो हमें उन्हें “बेतुकापन” या “खराब” कहकर खारिज नहीं करना चाहिए, बल्कि यह मानना चाहिए कि उनके विचारों में “कुछ सच्चाई है।”

केंट के कहने का मतलब है कि यह स्वीकार कर लेना कि हम जो नहीं जानते, वह अन्य लोग जानते हैं, एक विनम्रता की तरह लगता है। हालांकि यह इससे भी महत्वपूर्ण होता है।

केंट का दावा है कि दूसरों की गलतियों में सच्चाई खोजने का यह नैतिक कर्तव्य दूसरे व्यक्ति की “अपनी समझ के प्रति सम्मान बनाए रखने” में मदद करता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो जब हम स्पष्ट रूप से गलत दृष्टिकोण से रूबरू होते हैं, तो नैतिकता हमें उस व्यक्ति की मदद करने के लिए कहती है जिससे हम बात कर रहे हैं ताकि उसके विचारों में कुछ उचित बात खोजकर उसका आत्म-सम्मान बनाए रखा जा सके।

यह सलाह थोड़ी अलग लग सकती है क्योंकि हमने देखा है कि अकसर हम दूसरों को समझाते समय बच्चों को झिड़की देने जैसे तरीकों का उपयोग करते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि केंट यहां कुछ महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं और आधुनिक मनोविज्ञान की मदद से हम इसे अच्छे से समझ सकते हैं।

‘पर्सुएशन’ मनोवैज्ञानिकों का लंबे समय से मानना रहा है कि पर्सुएशन (समझाने-बुझाने) में एक महत्वपूर्ण कारक ध्यान होता है और जब लोगों की जरूरतें अलग होती हैं, तो वे तर्कों पर ध्यान नहीं देते।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं, जैसे कल्पना कीजिए कि आपको बैठक की वजह से दोपहर का भोजन स्थगित करना पड़े। फिर आपके पास केवल 15 मिनट हैं और पेट में चूहे कूद रहे हैं तो आप खाने के लिए निकल पड़े।

रास्ते में आपकी मुलाकात एक सहकर्मी से होती है और वह बैठक में हुई बातों का जिक्र करके आपको कुछ समझाने लग जाता है। ऐसे में इस बात की बहुत कम संभावना है कि आप उसकी बात को गौर से सुनें और समझें। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि आपको उस समय भूख लगी है जबकि वह आपसे कुछ और ही बात कर रहा है। इस स्थिति में शायद आप उसकी बात ध्यान से नहीं सुन पाएंगे।

हाल के दशकों में जिस चीज पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया है वह है सामाजिक जुड़ाव की आवश्यकता।

मनोवैज्ञानिक डैन केहेन एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण देते हैं, जो गलत तर्कों के साथ जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बात करता है, तो उसके मित्र और परिवार वाले उसके पीछे पड़ जाते हैं। केहेन का मानना है कि ऐसे मामले में उन लोगों को चाहिए कि वे उस व्यक्ति के सामाजिक जुड़ाव का ध्यान रखते हुए मुद्दे से जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं को कुछ देर के लिए नजरअंदाज कर दें।

इसका मतलब यह है कि किसी को समझाने-बुझाने वाले व्यक्ति को दूसरों की सामाजिक गरिमा की आवश्यकता को ध्यान में रखना चाहिए।

दूसरे शब्दों में, प्रोत्साहन देने के लिए बहुत सारी बाजीगरी की आवश्यकता होती है। मजबूत प्रोत्साहनकर्ता को तर्क देने के अलावा दूसरे व्यक्ति की आत्म-सम्मान की चाह को खतरे में पड़ने से रोकना भी जरूरी होता है।

यदि हम चीजों को थोड़ा आसान बनाएं तो ऐसा करना कोई मुश्किल काम नहीं है।

इसके अलावा भी कई चीजें हैं, जिनका ध्यान हमें किसी को समझाने-बुझाने के दौरान रखना चाहिए।

आत्मसम्मान के बारे में 1998 के एक अनूठे लेख में मनोवैज्ञानिक क्लॉड स्टील ने कहा कि एक अच्छे, सक्षम व्यक्ति के रूप में कुछ ‘आत्म-सम्मान’ बनाए रखने की हमारी इच्छा मनोविज्ञान को गहराई से आकार देती है।

अधिक दार्शनिक शब्दों में तो लोगों को आत्म-सम्मान की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए छात्र कभी-कभी कम अंक आने पर भाग्य और मुश्किल प्रश्न पत्र को दोष देते हैं, लेकिन जब बात अपनी क्षमताओं और प्रयासों की आती है तो खुद को ऊपर रखते हैं। इससे पता चलता है कि उन्हें अपने आत्मसम्मान की बहुत फिक्र होती है।

स्टील ने इस पर एक अध्ययन किया, जिसके कुछ आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। अध्ययन में महिला विद्यार्थियों को उन मूल्यों को लिखने के लिए आमंत्रित किया गया जो उनके लिए महत्वपूर्ण थे। यह आत्मसम्मान के बारे में जानने के लिए एक अभ्यास था। इसके बाद, इस अभ्यास में शामिल कई छात्रों ने भौतिकी पाठ्यक्रम में अच्छे अंक अर्जित किए।

यह और कई अध्ययन दर्शाते हैं कि कैसे किसी के आत्म-सम्मान को बढ़ावा देने से उन्हें बौद्धिक चुनौतियों से निपटने में मदद मिल सकती है।

केंट की तरफ वापस लौटते हैं। केंट का दावा है कि जब हमारा सामना किसी की गलत धारणाओं, बेतुकी बातों से होता है तो हमें उनकी बातों में कुछ सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए ताकि अपनी समझ के प्रति सम्मान बनाए रखने में उन्हें मदद मिले।

केंट केवल विनम्र होने की बात नहीं कर रहे हैं। वह लोगों का ध्यान एक वास्तविक आवश्यकता की ओर आकर्षित करते हैं – एक ऐसी आवश्यकता जिसे लोगों को अपनी बात समझाने वालों को पहचानना होगा।

आख़िर में, दूसरों के साथ विनम्रता से पेश आना नैतिक परिपक्वता दर्शाता है। आत्मसम्मान की दूसरों की जरूरत को पहचानने से न केवल आपको उन्हें समझाने में मदद मिलेगी बल्कि इससे आपको गर्व भी महसूस होगा।

(द कन्वरसेशन) जोहेब नेत्रपाल

नेत्रपाल