Body is born out of lust, then how is lust wrong?
“हम जिस प्रकिया से दुनिया में आए हैं, वो प्रक्रिया कैसे ग़लत हो सकती है क्योंकि हम ही ग़लत नहीं हैं। शरीर आता है काम और वासना के माध्यम से दुनिया में ?” तो पूछने वालों का मानना है कि हम शरीर हैं, और हम दुनिया में आए हैं, बहुत शुभ काम हुआ है, और दुनिया में हमें लाने का काम वासना ने किया है, तो वासना के विरुद्ध फिर सावधान रहने की ज़रूरत क्या है?”
पहली बात तो ये है कि आप शरीर हैं — यही आपका मूल कष्ट है। दूसरी बात — जब तक आप अपने-आपको जानते नहीं हैं, अपने-आपको और बाकी सब लोगों को शरीर ही मानते रहते हैं, तबतक आपके लिए सबसे बड़ी बात, सबसे शुभ घटना यही होती है कि किसी जीव का शारीरिक-आगमन हो जाए,। आपको यही बहुत बड़ी बात लगती है,। लेकिन जो समझदार हो जाता है, उसके लिए शुभ बात या बड़ी बात ये नहीं होती कि शारीरिक रूप से दुनिया में आ गए। उसके लिए बड़ी बात ये होती है कि मानसिक रूप से दुनिया से प्रस्थान कर गए। जो लोग इस बात की ख़ुशी मनाते हैं कि उनका शरीर इस दुनिया में आ गया, वो शरीर ही बनकर लगातार मौत जैसे कष्ट भोगते हैं। जो शरीर के जन्म की ख़ुशी मनाते हैं, वो शरीर ही बनकर जन्म पर्यन्त मृत्यु-तुल्य कष्ट भोगते हैं। और जो समझ जाते हैं कि अपने-आपको शरीर समझना भूल है, वो फिर आने की ख़ुशी नहीं मनाते, वो जाने की साधना करते हैं।
अध्यात्म आने का नाम नहीं है; अध्यात्म एक अंतिम विदाई का नाम है। सांसारिक आदमी या देहाभिमानी आदमी इसी चक्कर में लगा रहता है कि वो और आए, और आए, इसी को तो जन्म-मरण का चक्र कहते हैं ? प्रकृति आपसे चाहती ही यही है कि आप अपनी प्रजाति के और -नमूनें पैदा करते जाएँ। आप जिस भी प्रजाति के हों, प्रकृति की आपसे अपेक्षा ये रहती है कि आप अपनी प्रजाति के ही और सदस्य पैदा करते जाएँगे। अध्यात्म बिलकुल अलग आयाम की बात करता है। वो कहता है ये आने-जाने का कार्यक्रम तो तुम्हारा बहुत चलता रहा, तुम्हारा आना भी झूठा, तुम्हारा जाना भी झूठा। तुम आते हो जाने के लिए, तुम जाते हो आने के लिए। इस चक्र से ही तुम्हें बाहर आना है। ये आने-जाने का पूरा चक्र ही गड़बड़ है, ।
अध्यात्म में अगर कोई चीज़ ख़ुशी मनाने लायक होती है, तो वो होती है मोक्ष, मुक्ति, प्रस्थान; आगमन नहीं। तो तुम अपनी मूल-धारणा को देखो, तुम्हारी मूल-धारणा ही ग़लत है। चूँकि तुम अपनी मूल-धारणा को पकड़े हुए हो, इसीलिए तुम्हें कामवासना बड़ी शुभ बात लगती है। तुम कहते हो शरीर का इस दुनिया में आना शुभ है तो फिर कामवासना भी तो अच्छी बात हुई। शरीर का इस दुनिया में आना ही कोई शुभ बात नहीं है। ये बात बहुत लोगों के गले ही नहीं उतरेगी, क्योंकि हम तो अभ्यस्त हैं बच्चे के जन्म पर उल्लास और उत्सव करने के लिए। सबसे बड़ी ख़ुशी की बात यही होती है , घर में नया बच्चा आ गया। आपके पास सबकुछ हो, आपके घर में बच्चा ना हो, आपको चैन नहीं पड़ता। प्रकृति भी यही चाहती है, और समाज भी यही चाहता है। लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से ये बिलकुल कोई बहुत प्रसन्नता-हर्ष की बात नहीं है कि आप पैदा हो गए, बिलकुल भी नहीं। सच्ची दृष्टि से हर्ष की बात ये होती है कि अब आप दोबारा पैदा ना हों; आपकी आखिरी विदाई हो गई, निर्वाण हो गया आपका, अब आपको लौटकर आने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, अब आप फँसेंगे नहीं इसी कष्ट के चक्र में।
जो जितना अपने-आपको शरीर मानेगा, वो उतना ज़्यादा कामवासना को ही पूजेगा; बिलकुल सही बात है, क्योंकि शरीर आता ही कहाँ से है? कामवासना से, और अगर आप शरीर बन गए, तो फिर आपके लिए सबसे पूजनीय कामवासना हो ही जाएगी, आप ज़िंदगी भर यही करते रहोगे। और कामवासना का मतलब इतना ही नहीं होता है कि आप पुरुष हैं तो आपको स्त्री का शरीर चाहिए, आप स्त्री हैं तो आपको पुरुष का शरीर चाहिए, या आपको संतानें पैदा करनी हैं। कामवासना का अर्थ होता है — पदार्थ के प्रति बड़े सम्मान का, बड़े आदर का, बड़ी आस्था का रवैय्या रखना। पदार्थ को, मटेरियल को ही आखिरी चीज़ मान लेना। सोचना कि इसी से तो सबकुछ मिल जाना है, उसी को पूजने लग जाना। वो पदार्थ अपना शरीर भी हो सकता है, किसी और का शरीर भी हो सकता है, उस व्यक्ति को कामुक ही मानिए। इच्छा को ही तो कामना कहते हैं ,कोई ऐसा थोड़े ही है कि यौन-इच्छा को ही कामना कहते हैं, कोई भी इच्छा हो वो कामना ही है, काम। और सारी इच्छाएँ हमारी होती ही किसके प्रति हैं? पदार्थ के प्रति। तो जो अपने-आपको शरीर मानेगा, वो पदार्थ के प्रति ही पागल रहेगा।
साँस भी अगर आप ले रहे हैं, तो भी पदार्थ का ही सेवन कर रहे हैं आपके फेफड़ें पदार्थ को आप छोड़ नहीं सकते। लेकिन कामवासना में पागल आदमी की ये पहचान होती है कि वो उम्मीद लगा बैठता है कि पदार्थ से ही उसको आखिरी मुक्ति-तृप्ति-आज़ादी मिल जाएगी। यहीं पर वो मात खाता है। वो पदार्थ को मुक्ति के माध्यम की तरह नहीं इस्तेमाल करता, वो पदार्थ को ही मुक्ति समझ लेता है। वो ये नहीं सोचता कि गाड़ी हो अगर तो गाड़ी का सही इस्तेमाल करके सही मंज़िल तक पहुँचा जा सकता है। वो गाड़ी खरीद लेने में ही मुक्ति समझने लगता है। वो सोचता है कि जीवन का आखिरी शिखर यही है, कि अच्छी-से-अच्छी, महँगी-से-महँगी गाड़ी घर आ जाए। गाड़ी में कोई बुराई नहीं अगर आपको ये पता हो कि उस गाड़ी से जाना कहाँ है। लेकिन अगर आपके लिए सबसे बड़ी बात यही हो गई कि, “घर में मैंने महँगी-से-महँगी गाड़ी खड़ी कर ली”, तो फिर आप कामवासना के रोगी हैं।
शरीर क्या है? गाड़ी। उस गाड़ी का इस्तेमाल किसको करना है? चेतना को करना है, चेतना को अपनी मंज़िल तक पहुँचना है। चेतना को इस शरीर का इस्तेमाल करना है वहाँ पहुँचने के लिए जिसके लिए वो अधीर है। तो आप किसी को देखें, तो शरीर तो उसका दिखाई देना ही है, उसमें कोई अपराध नहीं हो गया। बात ये है लेकिन कि क्या आप उसको सिर्फ़ शरीर की तरह ही देख रहे हैं? कामवासना का रोगी वो है जो जब किसी को देखता है तो उसको सिर्फ़-और-सिर्फ़ शरीर दिखाई देता है। इसका मतलब ये नहीं है कि जो स्वस्थ व्यक्ति होगा या जो आध्यात्मिक व्यक्ति होगा, उसको शरीर नहीं दिखाई पड़ेगा, शरीर तो उसको भी दिखाई पड़ेगा, लेकिन उसे शरीर किसकी तरह दिखाई पड़ेगा? गाड़ी की तरह। जैसे आपके घर में कोई मेहमान आए, गाड़ी में बैठकर के आए, और आप ऐसे पागल निकलें कि उसकी गाड़ी को ही देखते रह जाएँ, गाड़ी के अंदर कौन बैठा है उसको देखें ही नहीं तो ये कितनी होशियारी की बात हुई?
अपने-आपको अगर हम शरीर ही मानते हैं तो फिर हम इस तरीके के सवाल पूछा करते हैं कि “अरे, जिस कामवासना से ही ये पूरी मनुष्य-प्रजाति उत्पन्न हुई है, अध्यात्म क्यों उसके विरुद्ध सावधान रहने को कहता है?” मनुष्य प्रजाति नहीं पैदा हुई है कामवासना से, कामवासना से मनुष्य की चेतना नहीं पैदा हुई है, कामवासना से आत्मा नहीं पैदा हुई है, कामवासना से सिर्फ़-और-सिर्फ़ शरीर पैदा हुआ है। आदमी-औरत मिलकर के देह के माध्यम से आत्मा नहीं पैदा कर सकते, शरीर पैदा कर सकते हैं, और शरीर पैदा कर सकते हैं तो उसमें कौन-सा बड़ा काम कर लिया? माँस और माँस मिले और माँस पैदा कर दिया, कौन-सा तीर चला दिया? कौन-सा पहाड़ ढहा दिया? कौन-सा पदक मिलना चाहिए? असली चीज़ क्या है? गाड़ी, या गाड़ी के अंदर जो बैठा है?
अगर हम सिर्फ़ शरीर होते, तो निश्चित रूप से हम कामवासना की पैदाइश होते पर हम सिर्फ़ शरीर नहीं हैं। शरीर तो हमारी हस्ती का बहुत बाहरी छिलका है। शरीर हमारी हस्ती का एक बहुत बाहरी छिलका-भर है। हम वास्तव में जो हैं, वो चीज़ कामवासना की पैदाइश नहीं है, बल्कि ये ज़रूर होता है कि अगर आप अपने-आपको कामवासना की पैदाइश समझने लग जाते हो, तो आप वास्तव में जो हो उसको पूरे तरीके से भूल जाते हो।