ठोक देने से अपराधी खत्म होगा, अपराध नहीं

ठोक देने से अपराधी खत्म होगा, अपराध नहीं

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  • Publish Date - July 12, 2020 / 01:44 PM IST,
    Updated On - November 29, 2022 / 09:58 AM IST

नजरिए की सामूहिकता की एक विशिष्टता ये है कि वो दिमाग की बजाए दिल से निर्धारित होती है। कानपुर वाले विकास दुबे को कथित एनकाउंटर में मार गिराने के बाद बाद यूपी पुलिस की हो रही जयकारे की गूंज में जनमानस की इसी अवधारणा की अनुगूंज है।

याद करिए हैदराबाद में गैंगरेप के आरोपियों के एनकाउंटर के बाद भी तब ऐसे ही जयकारे लगे थे। जनभावनाओं का दर्पण माने जाने वाले सोशल मीडिया में तब उस एनकाउंटर को जायज ठहराए जाने वालों का बहुमत था। भावाभिव्यक्ति का कुछ ऐसा ही ज्वार अब विकास दुबे और उसके गुर्गों के सीरियल एनकाउंटर के बाद उठा है। इस बार भी मत का आधिक्य एनकाउंटर को जायज ठहराए जाने का है। इस वैचारिक अतिवाद में छिपे खतरनाक संकेत ने न्याय प्रणाली के समक्ष अगर गंभीर सवाल खड़े किए हैं तो ऐसी नौबत आने के लिए ‘सिस्टम’ के वही चिरपरिचित दोष ही उत्तरदायी हैं।

आम धारणा यही है कि विकास दुबे को कानून सम्मत तरीके से उसके किए की सजा दिलाना नामुमकिन था, इसलिए पुलिस ने ‘ठोक’ कर सही किया। स्मरण रहे कि विकास दुबे पर थाने में घुसकर हत्या करने समेत तमाम जघन्य अपराधों के सैकड़ों मुकदमे दर्ज हैं, लेकिन उसके एक भी जुर्म पर कानून उसे अब तक सजा नहीं दिला सका है। सिस्टम के सामने कानून की यही लाचारी एनकाउंटर्स की जनस्वीकार्यता का आधार प्रदान करती है। खाकी और खादी का गठजोड़ ही विकास दुबों को पैदा करता है, वही उनको खत्म भी कर देता है।

एनकाउंटर की कहानी फिल्मी होने के बावजूद अगर अपराध की बजाए अपराधी को खत्म करने का ये तरीका रास आ रहा है तो कानून शासित समाज के लिए ये गंभीर चिंता का कारण है। विकास और उसके 6 गुर्गों के एनकाउंटर में कई इत्तफाक समान होने के बावजूद अगर लोग वारदात से जुड़े राज को उजागर करने के लिए विकास दुबे को जिंदा रखे जाने की राय से इत्तफाक नहीं रखते तो इसके भी गहरे मायने हैं। ये सोच इस लाजिम सवाल से पनपी है कि आखिर विकास के जिंदा रहते ही पुलिस ने कौन सा तीर मार लिया था? या जो दूसरे तमाम विकास दुबे जिंदा हैं, उनसे ही कौन सा राज उगलवा कर रामराज स्थापित कर लिया गया है?

दिमाग की बजाए दिल से दी जा रही यही दलीलें एनकाउंटर को नाजायज ठहराने के लिए उठने वाले सवालों को खारिज कर देती हैं। दरअसल एनकाउंटर के पक्ष में बहुमत के बनने की एक बड़ी वजह सवालों के सियासी स्वरूप और उनके दोहरे मापदंड हैं। जो लोग एक दिन पहले विकास दुबे की गिरफ्तारी को प्रायोजित निरूपित करके उसके पीछे उसे एनकाउंटर से बचाने का राजनीतिक षडयंत्र तलाश रहे थे, वही लोग अगले दिन उसके एनकाउंटर को प्रायोजित बताकर उसके आकाओं को बचाने का आरोप लगाने लगे। ‘नमक स्वादानुसार और सवाल सुविधानुसार’ की ये वैचारिक मनोवृत्ति ही इस दौर की नियति है।

बहरहाल, सच्चाई यही है कि एनकाउंटर को कोई लाख जस्टिफाई करे, ‘फैसला ऑन द स्पॉट’ का फिल्मी निदान अंततः सत्ता के हाथों में निरंकुशता का शस्त्र प्रदान करता है। याद रखिए, ठोक देने से अपराधी खत्म होता है, अपराध नहीं। अपराधी की बजाए अपराध को खत्म करने का रास्ता तलाशना ही आज तंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है।

 

सौरभ तिवारी

डिप्टी एडिटर, IBC24

 

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