सियासत की उलटबांसी
ये विरोधाभासों का सियासी कालखंड है। जो वाकई में जो है वो उसे छोड़कर वो बनने की कोशिश कर रहा है जो वो नहीं है।मुस्लिमपरस्ती में मस्त रहने वाले साफ्ट हिंदुत्व का राग अलाप रहे हैं तो छद्म धर्मनिरपेक्षता पर दूसरों को घेरने वालों ने खुद छद्म हिंदुत्व की राह पकड़ ली है। मुस्लिम तुष्टिकरण के झांसेबाज हिंदू तुष्टिकरण का झुनझुना बजा रहे हैं और हिंदुत्व के ठेकेदार मुस्लिम तुष्टिकरण की तुतुहरी। इस उलटबांसी में मतदाता बेचारा चकरघिन्नी सा घूम रहा है। सर घूमे चक्कर खाए…।
वाकई ‘वक्त है बदलाव का’। रामसेतु को काल्पनिक बताने वाले मध्यप्रदेश में राम वनगमन पथ बनवाने का वादा कर रहे हैं। गोया राम ने वनवास तो काटा था लेकिन लंका नहीं गए थे। केरल में बीच सड़क पर गाय काटने वालों ने मध्यप्रदेश की हर पंचायत में गौशाला खोलने का वादा भी कर रखा है। गाय हमारी माता है, अब हिंदुत्व हमको भाता है। लड़कियों को छेड़ने के लिए मंदिर जाने का निराला तर्क गढ़ने वाले खुद मंदिर-मंदिर भटकते-भटकते कैलाश मानसरोवर तक का फेरा लगा आए हैं। बस अब घोषणा पत्र में राममंदिर के निर्माण का वादा करना बाकी रह गया है।
तीसरी टोली की तो बात ही निराली है। रामभक्तों पर गोली चलाने वाले के बागी बेटे भव्य विष्णु मंदिर बनवाने का सपना दिखा रहे हैं तो रथयात्रा को अयोध्या जाने से रोकने वाले के साहबजादे खुद अयोध्या में मंदिर बना कर सारा टंटा मिटाने को आतुर हैं। इधर मोहर्रम के चलते दुर्गा प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगाने वाली मोहतरमा दुर्गा पंडालों को अनुदान बांट रही हैं तो उधर, धर्म को अफीम बताने वाले पूजा का कलश उठाए खुद अफीम खाए घूम रहे हैं। भगवान, दुश्मनों को भी इतने बुरे दिन ना दिखाए।
इधर भगवा बिरादरी की उलटबांसी ने अलग मतिभ्रम में डाल दिया है। हिंदुत्व के लिए खतरा बताए जाने वालों के बिना अब हिंदुत्व के अधूरे होने की ‘भागवत’ कथा सुनाई जा रही है। कांग्रेसमुक्त भारत की मगजमारी निरर्थक है सो मुक्त की बजाए युक्त की महत्ता बताई जा रही हैं। हिंदूराष्ट्र तो बनने से रहा लिहाजा अब शांतिदूतों के साथ शांति से गुजर बसर करने में ही भलाई है। देश के विखंडन और सांप्रदायिकता के लिए जिनके पाप गिनाते नहीं थकते थे अब उसके पुण्य गिनाए जा रहे हैं। मौजूदा संविधान से भी कोई दिक्कत नहीं है और ना ही आरक्षण से। चलो सुहाना भरम तो टूटा। फिर भी कोई भरम बाकी ना रहे तो ये ताकीद भी कर दी गई है कि काली टोपी-खाकी पेंट वाले किसी भी दल को वोट देने के लिए स्वतंत्र हैं।
वाकई गजब की उलटबांसी है। हटनी थी धारा 370, हट गई धारा 377। लागू होनी थी समान नागरिक संहिता, लागू हो गया SC-ST एक्ट। बनना था राम का देवालय, बन रहे हैं शौचालय। अब अगर चुनाव आते-आते राममंदिर भी जुमला बता दिया जाए तो चौंकिएगा मत। कसमें वादे प्यार वफा, सब बातें हैं, बातों का क्या…।
इधर अपने आराध्य की वादाखिलाफी से खार खाकर जो भक्त नोटा-नोटा जप रहे थे, उन बेचारों को लोटा थमा दिया गया है। लोटा किसी और ने नहीं बल्कि नोटा के प्रायोजक ने ही थमाया है। हैरान मत होइए, नोटा प्रायोजक खुद मध्यप्रदेश में चुनाव लड़ने की तैयारी में है। यानी किसी को भी वोट नहीं देकर सबक सिखाने के लिए उकसाने वाले खुद वोट मांगते नजर आएंगे। वाकई सियासत की माया निराली है। माया महाठगनी हम जानी।
दइया रे दइया…। कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन है, सॉल्यूशन कुछ पता नहीं। तो सवाल उठता है कि आखिर किया क्या जाए? अब कर भी क्या सकते हैं? बस ओंठ घुमा..सीटी बजा, सीटी बजाकर बोल…भइया…ऑल इज वेल…।
सौरभ तिवारी, असिस्टेंट एडिटर, IBC24