महाराष्ट्र शिवसेना का मामला भारत चुनाव आयोग में दलबदल संबंधी नियमों को लेकर सुस्पष्टता की ओर संकेत करता है। चुनाव आयोग जैसी संस्था को सिर्फ चुनाव करवाने तक सीमित रखना अब बुद्धिमत्ता नहीं है। इस संस्था के पास बहुत स्पष्टता से राजनीतिक दलों को लेकर जरूरी गाइडलाइंस आदि की ताकत होनी जरूरी है। फिलहाल यह मशीनरी सिर्फ चुनाव करवाने तक सीमित है। टीएन सेषन से पहले तक तो इस संस्था के पास अपने ही अधिकारों के पूरी तरह से प्रयोग की ताकत या हौसला तक नहीं था। जिनकी आयु 50 से अधिक है वे उस दौर को जानते होंगे। चुनाव कैसे होते थे और क्या इनमें किया जाता था।
अब जब भी दलबदल की बात आती है या पार्टी टूट की बात हो तो चुनाव आयोग बहुत स्पष्ट रूप से कोई फैसला नहीं ले पाता। या लेता भी है तो वह बाध्यकारी हो यह जरूरी नहीं। ऐसा पहली बार ही नहीं हो रहा। आयोग के सामने ऐसे अजमंजस मोरारजी देसाई के वक्त से ही आते रहे हैं। वजह साफ है। भारत में दल बनाने और उन्हें चलाने के नियम एक गैरसरकारी संगठन के समान ही आसान हैं। इनकी कोई मुकम्मल वित्तीय मॉनिटरिंग नहीं होती। न ही इनके पदाधिकारियों से जुड़े अपडेट्स या क्राइटेरिया बनाने का आयोग के पास अधिकार है। इनके पदाधिकारियों के हस्ताक्षर वेरीफिकेशन, पर्सनल वेरीफिकेशन जैसे कायदे या गाइडलाइंस नहीं हैं। ऐसे में दल की भीतरी गतिविधियों से आयोग अनजान रहता है।
चुनाव आयोग होने के नाते वह दल के आंतरिक मसलों को लेकर कुछ कर नहीं सकता। लेकिन जब वह दल चुनाव प्रणाली में भाग लेता है तो चुनाव आयोग के पास सभी अधिकार आ जाते हैं, लेकिन चुनाव संपन्न होते ही सब खत्म। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक साधारण बच्चे पर स्कूल के प्रिंसिपल के नियम लागू नहीं होते, लेकिन जैसे ही वह बच्चा स्कूल का छात्र हो जाता है तो प्रिंसिपल के दायरे में आ जाता है। समानांतर स्कूल प्रिंसिपल के पास यह अधिकार नहीं होते कि वह अपने छात्र बच्चे के घर के भीतर के व्यवहार को लेकर दंडित कर सके, लेकिन वह स्कूल में ऐसा माहौल जरूर रख सकता है, जिससे उस बच्चे में अच्छे संस्कार विकसित हों। फिलहाल में राजनीतिक दल सामान्य बच्चा व छात्र हैं। वह बच्चा है जब तक चुनाव में भाग नहीं ले रहा। जैसे ही भाग लेता है तो छात्र हो जाता है। इस उदाहरण में चुनाव आयोग प्रिंसिपल की भूमिका में है। लेकिन हमें अब इस प्रणाली को प्राचीन काल की गुरुकुल प्रणाली की तरह बनाना होगा। वास्तव में भारत जैसे विविध जन मानस वाले राज्य में चुनाव आयोग की भूमिका अहम है। व्यवस्था बनाने के लिए एक समान मताधिकार वाली लोकतंत्र प्रणाली तभी कारगर हो सकती है, जब इसके अनुपालन, संचालन आदि में लगी सभी एजेंसियां ताकतवर हों। इसके लिए अगर जरूरत पड़े तो चुनाव आयोग की पुर्स्थापना भी की जानी चाहिए। इसमें अगर इसका नाम भी बदलना पड़े तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। जैसे कि राजनीतिक विश्वविद्यालय, राजनीति आयोग, भारतीय राजनीति प्रक्रिया व अनुसंधान परिषद, भारतीय राजनीति आयोग, भारतीय राजनीतिक चुनाव व दल नियामक आयोग आदि नाम भी दिए जा सकते हैं।
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3 weeks ago