नयी दिल्ली, 23 दिसंबर (भाषा) अलीगढ़ के ताला श्रमिकों, उनके रहन-सहन पर ‘सिटी ऑन फायर: ए बॉयहुड इन अलीगढ़’ में दिलचस्प झरोखा पेश किया गया है। इसमें बौना डाकू का भी किस्सा है, जिसे अलीगढ़ के अपराध इतिहास का सबसे अमीर डाकू माना जाता है।
यह पत्रकार, लेखक और वृत्तचित्र फिल्म निर्माता जेयाद मसरूर खान का एक संस्मरण है, जो 1990 के दशक में पुराने शहर के एक मुस्लिम इलाके में पले-बढ़े। ऐसा समय जो गहन राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कायापलट के दौर से गुजर रहा था।
खान ने किताब में याद किया है कि कैसे बौना डाकू 20वीं सदी की शुरुआत में अलीगढ़ की गड्ढों वाली सड़कों पर घूमता था।
‘हार्पर कॉलिन्स इंडिया’ द्वारा प्रकाशित पुस्तक में कई सुनी-अनसुनी कहानियों, रिपोर्ताज और बातचीत के माध्यम से खान ने अलीगढ़ के जनजीवन से रूबरू कराया है।
किताब में कहा गया है कि बौना डाकू को अलीगढ़ के अपराध इतिहास का सबसे अमीर डाकू माना जाता है। वह इतना अमीर था कि उसने शहर के बाहरी इलाके में अपना निजी किला बनाया। इसमें प्रवेश के लिए गुफाओं के समान बेहद तंग रास्ते थे जिसमें केवल बौना ही प्रवेश कर सकता था। किसी ने भी उसे पकड़ने के लिए इन गुफाओं में घुसने की हिम्मत नहीं की।
किताब अलीगढ़ के पुराने शहर के ताला बनाने वाले श्रमिकों के बारे में भी बात करती है। खान ने कहा है कि उन्होंने देखा कि ताला बनाने वाले कर्मचारी हमेशा काले रंग से ढके रहते थे, ग्रीस का रंग उनके चेहरे और शरीर को ढक देता था, जिससे उनकी पहचान करना मुश्किल था।
किताब में शहर की बसावट का झरोखा भी पेश किया गया है। इसमें कहा गया है कि आधुनिक ऊपर कोट में, प्रत्येक गली में तीन प्रकार के घर होते हैं: गरीब घर, अमीर घर और मंजिलें।
किताब में कहा गया है, ‘‘गरीब घर मजदूरों के हैं। उनकी दीवारें उस दिन का इंतजार कर रही हैं जब मालिक पेंट करवाएंगे। खिड़कियों पर लगे पर्दे पुरानी चादर या जूट की बोरी होती हैं। सीढ़ियां संकरी और अंधेरी हैं।’’
इसमें कहा गया, ‘‘इसके विपरीत, अमीर घर इतने ऊंचे होते हैं कि उन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। वे मुट्ठी भर भाग्यशाली व्यापारियों या फैक्टरी मालिकों के हैं। ये घर खुद ही संपन्नता की कहानी सुनाते हैं।’’
भाषा आशीष नेत्रपाल
नेत्रपाल
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