श्रृंगी ऋषियों की तपोभूमि में मां विंध्यवासिनी कर रही भक्तों की मनोकामना पूर्ण | maa vindhyavasini dhamtari

श्रृंगी ऋषियों की तपोभूमि में मां विंध्यवासिनी कर रही भक्तों की मनोकामना पूर्ण

श्रृंगी ऋषियों की तपोभूमि में मां विंध्यवासिनी कर रही भक्तों की मनोकामना पूर्ण

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 06:54 AM IST, Published Date : April 13, 2019/12:33 pm IST

पर्यटन डेस्क। धमतरी को धर्म के नगर के नाम से जाना जाता है। श्रृंगी ऋषियों की तपोभूमि रही धमतरी की मिट्टी में कई देवी-देवताओं का वास है। महानदी, पैरी और सोंढूर नदियों के पानी ने धमतरी की मिट्टी को सींचा हैं। धमतरी में ही मां विंध्यवासिनी का 6 सौ साल पुराना सिद्ध मंदिर है जिसे लोकभाषा में मां बिलई देवी के नाम से जाना जाता है। मां विंध्यवासिनी का भव्य प्रवेश द्वार और मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ को देखकर ही आप देवी विंध्यवासिनी के ओज का अंदाजा लगा सकते है। जैसे ही मंदिर के अंदर प्रवेश करेंगे आपको एक बड़ा सा अग्निकुंड नजर आएगा। जहां देवी के दर्शन से पहले शीर्ष नवाकर दीप प्रज्जवलित करने की परंपरा है. हवन कुंड के पास थाली में दो चरण पादुकाएं रखी है। .सबसे पहले मां की इन पादुकाओं की पूजा की जाती है। .मंदिर में बंधी घंटियों की ध्वनि इस बात का उदाहरण है कि मां विंध्यवासिनी के दरबार में आया हर भक्त अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। जैसे-जैसे आप मंदिर के गर्भगृह की ओर जाएंगे आपको देवी के विंध्यवासिनी के अलौकिक स्वरूप के दर्शन होंगे। गर्भगृह में विराजी मां विंध्यवासिनी का मुख दरवाजे के सीध में पूर्व की ओर मुड़ी हुई है।
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ज्ञात हो कि हिंदू धर्म में देवी के कई रूप हैं.जितने रूप हैं उतनी ही मान्यताएं भी। कहते हैं कि देवी विंध्यवासिनी दिन में तीन रूप धारण करती हैं। सुबह बाल्यवस्था दोपहर में युवावस्था और शाम को प्रौढ़वस्था में आ जाती हैं। वैसे तो शक्ति के जितने भी रूप हैं सभी पहाड़ों पर विराजी हुई हैं। लेकिन मां विंध्यवासिनी पाताल से निकली हैं। ऐसी मान्यता है कि देवी के पांव पाताल लोक तक फैले हुए हैं।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मां विंध्यवासिनी कांकेर के राजा नरहर देव इस स्थान में शिकार खेलने आए थे तभी उन्हे देवी विंध्यवासिनी की मूर्ति मिली .लोकभाषा में बिलई माता कहे जाने पर भी ये मान्यता है कि जब राजा को देवी की मूर्ति मिली तब मूर्ति की रक्षा बिल्लियां कर रही थी और उसी के बाद से ही मां विंध्यवासिनी का नाम बिलई माता के नाम से प्रचलित हो गया। रियासत काल में बस्तर राजघराने के लोग बिलाई माता के दरबार में विशेष पूजा का आयोजन करते थे। पुरातन समय में बस्तर के राजा 108 बकरों की बलि चढ़ाया करते थे, लेकिन अब देवी की सात्विक पूजा होती है। और बकरे की जगह रखिया चढ़ाई जाती है.देवी के दरबार में श्रद्धालु आस्था का नारियल और श्रद्धा के फूल चढ़ाते हैं।

 

देवी विंध्यवासिनी धमतरी नगर की आराध्य देवी हैं। वो सबकी मनोकामना पूरी करती हैं। यहां नवरात्र में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है।श्रद्धालु मां विंध्यवासिनी को नारियल का बंधन और श्रृंगार का सामान चढ़ाते हैं । अलावा देवी को पीले वस्त्र और साड़ी चढ़ाई जाती है.देवी भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान देती है.और उनकी खाली झोली भरकर उनका जीवन निहाल करती हैं।विंध्यवासिनी मंदिर में नवरात्रि का विशेष महत्व है जिसमें दूर-दराज से श्रद्धालु देवी के दर्शन के लिए आते हैं..साथ ही नौ दिनों तक ज्योति प्रज्जवलित करते हैं। मंदिर का ये नियम है कि मंदिर में सिर्फ घी के ज्योत ही जलते हैं। गर्भगृह में दो ज्योत जलाने की सदियों पुरानी परंपरा आज भी जारी है। मंदिर की ख्याति इतनी ज्यादा है कि विदेश में जाकर बस गए लोग भी ज्योत जलाने के लिए यहां आते हैं। नवरात्रि में देवी का ये धाम और भी विशेष हो जाता है यहां गूंजने वाली वेद की ऋचाएं और मंत्र एक विशेष मान्यता का आधार हैं. ऐसी मान्यता है कि जीवन की विपत्तियों को दूर करने के लिए ये आचार्य 9 दिनों तक वेद और ऋचाओं का पाठ करते हैं। माना जाता है कि सप्तसती का पाठ करने से सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं। साल का चाहे कोई भी दिन हो, बिलाई माता के दर पर आने वाले भक्तों की संख्या कम नहीं होती। लोग सब तरफ़ से हताश होकर माता के शरण में आते हैं, और यहां आते ही बिलाई माता उनके सारे कष्ट हर लेती हैं।
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धमतरी से 15 किमी की दूरी पर स्थित है माता का धाम मां विंध्यवासिनी की बहन हैं देवी अंगार मोती..अंगार से बने होने के कारण इनका नाम पड़ा अंगार देवी…ऐसी जनश्रुति है कि मां अंगारमोती परम तेजस्वी ऋषि अंगीरा की पुत्री थी जिनका आश्रम सिहावा के पास घठुला में है। देवी का मूल मंदिर वनग्राम चंवर, बटरेल, कोरमा और कोकड़ी की सीमा पर महानदी व सूखा नदी के पवित्र संगम पर स्थित है। माता अंगारमोती का जिले में दो स्थानों पर प्रतिमा स्थापित है। गंगरेल में माता का पैर स्थापित है, वहीं रुद्रीरोड सीताकुंड में माता का धड़ विराजमान है। सीताकुंड स्थित अंगारमोती मंदिर के पुजारी के अनुसार देवी का धड़ पास के तालाब में मछुआरों के जाल में फंसा मिला, मछुआरों ने इसे मामूली पत्थर समझकर वापस तालाब में ही डाल दिया। फिर गांव के ही एक व्यक्ति को माता का स्वप्र आया कि उसे तालाब से निकालकर पास के ही झाड़ के नीचे स्थापित किया जाए। गांव वालों के सहयोग से फिर यहीं माता की स्थापना हुई।
सन 1973 में गंगरेल बांध बनने के पहले इस क्षेत्र में 52 गांव का वजूद मौजूद था। महानदी, डोड़की नदी तथा सूखी नदी के संगम पर ही तीन गांव चंवर, बटरेल तथा कोरलम स्थित थे। पहले इन गांवों की टापू पर स्थित मां अंगारमोती की मूर्ति को बांध बनने के बाद बांध किनारे ही स्थापित कर दिया गया। अभी भी 52 गांव के ग्रामीण शुभ कार्य की शुरूआत के लिए मां अंगारमोती के दरबार पहुंचते हैं। क्वांर व चैत्र नवरात्र में हजारों श्रध्दालु यहां मनोकामना ज्योति प्रज्जवलित करते हैं।मां अंगार देवी मंदिर में एक अनूठी मान्यता है घंटियां बांधने की…ऐसा कहा जाता है मंदिर में श्रद्धालु दूर-दूर से अपनी मन्नत मानने पहुंचते हैं…अंगार मोती मंदिर में जो भी आता है एक नारियल और घंटी बांध देता है..और मन्नत पूरी होने पर इन घंटियों को निकला जाता है।पुण्य सिहावा के इस इलाके में बसने वाले लोगों को भाग्यशाली ही कहां जाएगा। जो उन्हें एक साथ तीन देवियों का आशीर्वाद प्राप्त हैं। मां अंगारमोती के अलावा उनकी बहनें विंध्यवासिनी और मनकेशरी देवी भी यहां के लोगों पर अपनी कृपा बरसाती आईं हैं । आदिकाल से ही मां दुर्गा अंगार मोती और मकेशरी माता के रूप में इस जंगली इलाके की रक्षा कर रही हैं। चवरगांव में मां अंगारमोती और लमकेनी में मनकेशरी देवी का वास रहा है। लोगों की ऐसी मान्यता है की इन दोनों देवियों में गहरा रिश्ता है। गंगरेल की पहाड़ियों में दोनों के प्रति गहरी आस्था सदियों से रही है । बांध बनने के चलते दोनों के शक्ति स्थलों की दूरियां जरूर बढ़ गईं हैं लेकिन दोनों के प्रति भक्तों के जुड़ाव में कोई अंतर नहीं आया है। गांव वालों के मुताबिक इन दोनों बहनों के मिलने के बाद ही इस इलाके में मड़ई मेले की शुरूआत होती है ।

बता दें कि धमतरी धार्मिक दृष्टि से जितना समृद्ध है उतना ही समृद्ध पर्यटन के लिहाज से भी समृद्ध है। यहां देवियों के दर्शन के साथ आप गंगरेल डेम, श्रृंगी ऋषि के आश्रम और महानदी का उद्गम स्थल सिहाव नगरी की सैर भी कर सकते हैं। छत्तसीगढ़ के पर्यटन स्थलों में इन जगहों को बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है। धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के स्थान आकर्षक प्राकृतिक सुंदरता और जंगली जानवरों के विशाल भंडार से धन्य, धमतरी अपनी पारंपरिक लोक संस्कृति के लिए जाना जाता है, जो इस क्षेत्र की विशिष्टता को जोड़ता है। धमतरी में कई पर्यटक आकर्षण हैं। प्रसिद्ध रविशंकर जल बांध, जिसे गंगरेल बांध भी कहा जाता है, सूर्यास्त की मनोहारी छटा के लिए प्रसिद्ध है..यहां हर साल हजारों सैलानी पहुंचते हैं।

 
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