तालिबान के कब्जे के एक साल बाद अफगानिस्तान: मानवाधिकार पर संकट बरकरार |

तालिबान के कब्जे के एक साल बाद अफगानिस्तान: मानवाधिकार पर संकट बरकरार

तालिबान के कब्जे के एक साल बाद अफगानिस्तान: मानवाधिकार पर संकट बरकरार

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:56 PM IST, Published Date : August 2, 2022/11:35 am IST

फिरदौस आसिफी, पीएचडी अभ्यथीर्, समाजशास्त्र, टोरंटो विश्वविद्यालय, टोरंटो, दो अगस्त (द कन्वरसेशन) ‘सालगिरह’ का शब्द अमूमन खुशी और जश्न से जुड़ा होता है। लेकिन 15 अगस्त को अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को एक साल पूरा हो रहा है, और यह मेरी मातृभूमि के लिए खुशी का अवसर नहीं है।

हाल ही में, अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमए) ने ‘अफगानिस्तान में मानवाधिकार’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें अधिग्रहण के बाद से देश की स्थिति पर प्रकाश डाला गया।

रिपोर्ट परेशान करने वाली तो है लेकिन चौंकाने वाली नहीं है क्योंकि इसमें नागरिक हताहतों की संख्या, महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध और बोलने की स्वतंत्रता, न्यायेतर हत्याएं और जातीय अल्पसंख्यक उत्पीड़न पर प्रकाश डाला गया है।

फिर भी तालिबान के खिलाफ सबूत इकट्ठा करने में कठिनाइयों के कारण जो बताया गया है वह हकीकत से बहुत कम है। तालिबान ने मीडिया को सेंसर किया है और पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार किया है।

यूएनएएमए की रिपोर्ट में कहा गया है कि तालिबान ने ‘मानव अधिकारों के संरक्षण और संवर्धन के उद्देश्य से’ कदम उठाए हैं और सुरक्षा में सुधार हुआ है।

यूएनएएमए ने तालिबान को कई सिफारिशें प्रस्तावित की हैं क्योंकि चरमपंथी शासन विश्व स्तर पर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अफगानों के मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन जारी है।

महिलाओं के खिलाफ युद्ध

अफगानिस्तान कब्जे में है।

हजारा आबादी के खिलाफ जबरन विस्थापन और प्रणालीगत नरसंहार, लक्षित हिंसा और 600 ताजिक बंधकों की सामूहिक हत्याओं की प्रत्यक्षदर्शी रिपोर्ट, पंजशीर में मानवता के खिलाफ अपराध, खनिज संपदा का बेहिसाब दोहन और तालिबान द्वारा महिलाओं के खिलाफ छेड़े जा रहे युद्ध का विवरण देने वाली कई रिपोर्टें आई हैं। ।

चूंकि तालिबान अपनी बेटियों को विदेशों में स्कूलों में भेजते हैं, अन्य लड़कियों के लिए माध्यमिक विद्यालयों पर लगभग एक साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया है।

महिलाओं को हिजाब या बुर्का पहनने के लिए मजबूर किया जाता है, पार्क में महिलाओं और पुरूषों की एक साथ मौजूदगी पर रोक है और हाल ही में वित्त मंत्रालय में तैनात महिला कर्मचारियों को बर्खास्त करके उनके पुरूष रिश्तेदारों को नौकरी पर रख लिया गया।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की हालिया रिपोर्ट अफगान महिलाओं की स्थिति को ‘धीमी गति से मौत’ की तरफ बढ़ने के रूप में वर्णित करती है। महिला मामलों के मंत्रालय को भी समाप्त करने के साथ, यह एक लिंग-भेद व्यवस्था है।

तालिबान ने पुरुषों को भी दाढ़ी बढ़ाने और इसे न काटने और स्थानीय कपड़े पहनने का निर्देश दिया है अन्यथा परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा गया है।

अन्य त्रासदी जारी हैं। कब्जे के बाद से लाखों अफगान विस्थापित हुए हैं।

जून में एक शक्तिशाली भूकंप ने 1,000 से अधिक लोगों की जान ले ली, जिससे हैजा का प्रकोप हुआ।

अफगानिस्तान में सभी बलों की वापसी को चिह्नित करने के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच हस्ताक्षरित दोहा समझौते को भी समाप्त कर दिया गया है क्योंकि तालिबान के तहत आतंकवादी समूह खुद को पुन: तैनात कर रहे हैं।

विदेशी हस्तक्षेप

1996 और 2001 के बीच, केवल तीन देशों ने तालिबान शासन को मान्यता दी: पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात।

जबकि किसी भी देश ने औपचारिक रूप से वर्तमान शासन को मान्यता नहीं दी है, अमेरिका और उसके साथी देशों पाकिस्तान और अरब खाड़ी देशों ने अफगानिस्तान को अस्थिर कर दिया है।

अफगानिस्तान में जितनी भी अस्थिरता और भ्रष्टाचार है वह 1950 और 1960 के दशक में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में अमेरिकी और सोवियत की भागीदारी के कारण है, जो आज भी देश को परेशान करता है।

देश की पूरी अर्थव्यवस्था विदेशी सहायता पर निर्भर थी।

पिछले साल संयुक्त राष्ट्र के एक सम्मेलन में, पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री ने न केवल तालिबान के कब्जेदारों का बचाव किया, बल्कि दावा किया कि आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका ‘इस मौजूदा सरकार को मजबूत करना’ और ‘अफगानिस्तान में लोगों की खातिर इसे स्थिर करना’ था।

यह तालिबान के इस वादे पर आधारित था कि वे मानवाधिकारों का पालन करेंगे, एक समावेशी सरकार बनाएंगे, पूर्व सरकारी कर्मचारियों को माफी देंगे और देश को आतंकवादियों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह के रूप में काम नहीं करने देंगे। लगभग एक साल बाद, इनमें से कुछ भी हकीकत में नहीं बदला है।

अफगानिस्तान में पाकिस्तानी अधिकारियों के लगातार दौरे और तालिबान को उनके समर्थन की निंदा करते हुए अफगानिस्तान में पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन हुए हैं।

पाकिस्तान को कोयले की रियायती बिक्री का अफगानों ने सार्वजनिक आक्रोश के साथ विरोध किया, इस विचार की पुष्टि करते हुए कि तालिबान एक पाकिस्तानी प्रॉक्सी है।

कतर के भी तालिबान के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और सुरक्षा समझौता संभव है। चीन ने व्यापार और निवेश योजनाओं का विस्तार करके तालिबान के साथ दोस्ती बढ़ाई है।

शरणार्थियों के साथ क्रूर व्यवहार

अफगान शरणार्थी संकट परेशान करने वाला है। ईरान ने हजारों अफगान शरणार्थियों को निर्वासित किया है और जनता और अधिकारियों दोनों द्वारा उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया, जबकि तुर्की ने भी 10,000 से अधिक अफगान प्रवासियों को बलपूर्वक निर्वासित किया है।

बेल्जियम ने सैकड़ों अफगान शरणार्थियों के शरण के दावों को खारिज कर दिया है, जिससे उन्हें निर्वासित होने का खतरा है क्योंकि अधिकारी अफगानिस्तान को सुरक्षित मानते हैं।

यूक्रेन के शरणार्थियों के लिए जगह बनाने के लिए जर्मनी ने 24 घंटे के भीतर अफगान शरणार्थियों को उनके घरों से बेदखल कर दिया।

कनाडा ने अफगान शरणार्थियों की संख्या 40,000 पर सीमित कर दी है, जबकि यूक्रेनी शरणार्थियों के लिए कोई सीमा नहीं है, और सरकार ने यूक्रेनियन के लिए कुछ सुरक्षा उपायों को भी माफ कर दिया है।

यह अनुमान लगाया गया है कि अगस्त 2021 के बाद से पड़ोसी देशों से 650,000 से अधिक अफगानों को निर्वासित या अफगानिस्तान लौटा दिया गया है। यह तालिबान शासन के तहत कई लोगों के लिए गंभीर जोखिम पैदा करता है।

अब 2023 के राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम के पारित होने के साथ, रक्षा विभाग के संसाधनों के माध्यम से अफगानिस्तान को दी जाने वाली अमेरिकी मानवीय सहायता समाप्त हो गई है। दुनिया में सबसे बड़ा मानवीय संकट तब तक बढ़ता रहेगा जब तक तालिबान सत्ता में रहेगा।

युद्ध का न होना शांति नहीं होता और वह भी तब जब अफगानों से उनके मानवाधिकारों को लगातार छीना जा रहा है।

द कन्वरसेशन एकता एकता

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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