Chhattisgarh reservation roster update

#Nindakniyre: क्या जलता हुआ अंगारा बन गया है संशोधित आरक्षण विधेयक?

Nindakniyre : छत्तीसगढ़ में 2012 से पहले तक एसटी को 20, एससी को 16 और ओबीसी को 14 परसेंट आरक्षण लागू था। लेकिन तबकी डॉक्टर रमन सरकार ने इसे 50 फीसदी की सीमा से पार करते हुए एसटी को 32, एससी को 12 और ओबीसी को 14 कर दिया। यह सब मिलाकर 58 फीसदी पर पहुंच गया।

Edited By :   Modified Date:  April 1, 2023 / 04:19 PM IST, Published Date : April 1, 2023/4:19 pm IST

बरुण सखाजी. सह-कार्यकारी संपादक, IBC-24

Chhattisgarh reservation roster update: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 2012 का आरक्षण रोस्टर रद्द कर दिया। आनन-फानन में बैकफुट पर कांग्रेस ने विशेष सत्र बुलाकर इसे रिस्टोर कर दिया। लेकिन तबकी राज्यपाल अनुसुइया उइके ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किए। इस बीच सियासत से लेकर समाज तक विरोध-प्रदर्शन जारी है। लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि नया आऱक्षण विधेयक कब से लागू हो पाएगा? उम्मीद थी 22 मार्च को सुप्रीम कोर्ट इस पर कुछ कहेगा, लेकिन यह सुनवाई टल गई और अभी तक नई तारीख नहीं मिली है। आइए जानते हैं, इसके हर पहलू को।

पहले बैकग्राउंड समझते हैं

छत्तीसगढ़ में 2012 से पहले तक एसटी को 20, एससी को 16 और ओबीसी को 14 परसेंट आरक्षण लागू था। लेकिन तबकी डॉक्टर रमन सरकार ने इसे 50 फीसदी की सीमा से पार करते हुए एसटी को 32, एससी को 12 और ओबीसी को 14 कर दिया। यह सब मिलाकर 58 फीसदी पर पहुंच गया। इसे चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने 2014 तक इस पर रोक लगाए रखी। लेकिन सरकार ने 2014 में हाईकोर्ट में एक शपथपत्र दिया, जिसके बाद यह लागू हो गया। लेकिन सुनवाई जारी रही। 19 सितंबर 2022 को हाईकोर्ट ने इसे अवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया। इससे छत्तीसगढ़ में 2012 से पहले वाला रोस्टर रह गया। इसके मुताबिक एसटी का 32 से घटकर 20, ओबीसी का 14 और एससी का 16 परसेंट हो गया। इस स्थिति का फायदा एसी को मिला, जिनका 12 से बढ़कर 16 हो गया, बाकी सब नुकसान में रहे। बढ़ते राजनीतिक बवाल के बीच भूपेश सरकार ने दिसंबर में विशेष सत्र बुलाकर नया आरक्षण विधेयक पारित कर दिया। इसके मुताबिक ओबीसी को 14 से बढ़ाकर 27, एसटी को 32 और एससी को 12 से बढ़ाकर 13 कर दिया गया। लेकिन यह विधेयक तब तक लागू नहीं हो सकता जब तक राज्यपाल इस पर हस्ताक्षर न करें। यानि बिल राजभवन में अटका हुआ है और इस मामले में अलग-अलग याची सुप्रीम कोर्ट गए हुए हैं। इस लिहाज से देखें तो इसे सबज्यूडिस भी बताया जा रहा है।

तो क्या राज्यपाल इसे ऐसे ही रोके रहेंगे?

राज्यपाल को मिली ताकत के मुताबिक विधानसभा से पारित किसी भी विधेयक को लेकर वे 4 तरह से फैसला कर सकते हैं। पहला वे इस पर हस्ताक्षर कर सकते हैं, दूसरा वे कुछ कमीबेशी है तो सरकार से कह सकते हैं, तीसरा इसे अनिश्चित काल तक रोक सकते हैं, चौथा वे इसे राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने इसमें पहले अपनी दूसरी ताकत का इस्तेमाल किया। यानि कुछ बिंदुओं पर सरकार से सवाल किए। सरकार ने जवाब दे दिए। इसके बाद राज्यपाल ने इसे अनिश्चित समय तक रोके रखने की ताकत का इस्तेमाल किया है। अब चूंकि राज्यपाल बदल गए हैं। अनुसुइया उइके मणिपुर चली गई हैं और छत्तीसगढ़ में नए राज्यपाल विश्वभूषण हरिचंदन आ चुके हैं। लेकिन उन्होंने हाल में यह कहकर इस मसले का पटाक्षेप करने की कोशिश की है कि यह विवादित मसला है। इस पर मैं कुछ नहीं बोलूंगा।

तब तो इसका नुकसान भाजपा को हो रहा होगा

जब यह बिल रोका गया तो भाजपा के बयान अलग-अलग थे। यानि रोकने से पहले डिफेंस लाइन क्लीयर नहीं थी। कांग्रेस ने लगातार हमले किए। भानुप्रतापपुर उपचुनाव में इसे मुद्दा बनाया। बताया गया भाजपा नहीं चाहती आदिवासियों को आरक्षण मिले। भाजपा इस पर डिफेंसिव नजर आई। भाजपा ने कहा, हमने तो 50 फीसदी की सीमा पार करके 2012 में ही 58 फीसदी आरक्षण दे दिया था। तो हम कहां से आरक्षण विरोधी हुए। इस तरह से भाजपा ने डिफेंस किया है, लेकिन क्या यह डिफेंस कारगर है।

कांग्रेस ने चले दुधारी तीर

असल में नए आरक्षण विधेयक के जरिए भूपेश सरकार ने दुधारी तीर चला है। कांग्रेस इस बिल को आदिवासी आरक्षण के रूप में प्रचारित कर रही है। ताकि वह आदिवासी समाज में अपनी 2018 की पैठ को बरकरार रख पाए। 2018 में कांग्रेस ने 29 आदिवासी आरक्षित सीटों में से 27 जीती थी और 2 सामान्य सीटों से आदिवासी विधायकों को जिताया है। इस तरह से कांग्रेस के सदन में 29 आदिवासी विधायक हैं। जबकि भाजपा भारी नुकसान के साथ सिर्फ 2 आदिवासी विधायकों पर सदन में खड़ी है। इस दुधारी तीर का पहला असर तो ये हो रहा है कि आदिवासी समाज उसके साथ बना रहेगा। दूसरा सबसे अहम है। दरअसल कांग्रेस ने विशेष रूप से भूपेश बघेल ने इस बिल के जरिए देशभर में फिर से ओबीसी की सियासत को हवा दी है। नब्बे के दशक में चले मंडल कमिशन की कई राजनीतिक पार्टियां लाभार्थी हैं। अब बघेल इसके बड़े हिस्सेदार बनना चाहते हैं। यह बघेल का महत्वाकांक्षी प्लान है। उन्होंने इस बिल में ओबीसी को 14 से बढ़ाकर 27 फीसदी आरक्षण दे दिया है। बस भाजपा इसे लेकर ही परेशान है। छत्तीसगढ़ में केंद्र के निर्देशानुसार 2019 में क्वांटिफाइबल डेटा कमिशन बनाया गया था। कोरोना के बाद इसकी रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में 42.41 फीसदी ओबीसी और 3.48 फीसदी ईडब्ल्यूएस हैं। बघेल कहते रहे हैं, कि उन्होंने संशोधित आरक्षण विधेयक क्वांटिफाइबल डेटा कमिशन की रिपोर्ट के आधार पर बनाया है। जबकि भाजपा कहती है कमिशन की रिपोर्ट सदन में नहीं रखी गई। इन दो मकसदों के अलावा बघेल का अपना एक निजी राजनीतिक मकसद भी इसमें नजर आता है। वर्तमान में देश में प्रधानमंत्री ओबीसी समाज से आते हैं। कांग्रेस के पास बड़े ओबीसी नेताओं में बघेल एक विकल्प हैं। इससे ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं, आप समझदार हैं।

भाजपा नुकसान में, लेकिन नुकसान को कर रहा कम

इस विधेयक को अगर बिना किसी रोकटोक के सीधे पास किया जाता तो यह कांग्रेस को देशभर में फायदा दे सकता था। इसका सबसे बड़ा नुकसान भाजपा को होता। इसलिए भाजपा रणनीतिक रूप से इस विधेयक को अटकाना चाहती है। कोर्ट में भी अनेक याचिकाएं हैं, जिन्हें आधार बनाकर इस रोस्टर को रोका जा सके। इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा आरक्षण नहीं देना चाहती, बल्कि इसका अर्थ यह है कि भाजपा इसका श्रेय कांग्रेस को नहीं लेने देना चाहती। खासकर ओबीसी समाज के बीच।

तो अब होगा क्या?

इस मामले में 3 स्थितियां बनती हैं। पहली, राजभवन इसे अटकाए रखेगा। कोर्ट में सुनवाइयों की तारीखें बढ़ती रहेंगी और किसी तरह से चुनाव में इसे लेकर कांग्रेस-भाजपा आपस में इस्तेमाल करती रहेंगी। इससे ये होगा कि कांग्रेस जो इसकी इकतरफा लाभार्थी बनती, वह नहीं बन पाएगी। नुकसान भी शेयर होगा और लाभ भी। दूसरी स्थिति यह बन सकती है कि भाजपा अपने राजनीतिक घोषणापत्र में आरक्षण का बड़ा कोई ऐलान लेकर आए। तीसरा और आखिरी यह हो सकता है कि संशोधित आरक्षण विधेयक को वोटिंग होते ही राजभवन से हरी झंडी मिल जाए। यानि कुल जमा यही कह सकते हैं कि इस विधेयक को कम से कम नवंबर तक तो लटकना ही होगा।

तब सारे आरक्षण लाभार्थियों का गुस्सा किस पर उतरेगा?

इसका जवाब बहुत सीधा और साफ है। संशोधित विधेयक में आरक्षण के सबसे बड़े हितग्राही तो ओबीसी हैं। दूसरे नंबर पर आदिवासी, लेकिन आदिवासियों से भाजपा कह सकती है 32 परसेंट तो उन्होंने 2012 में ही दे रखा था, तो इसमें कांग्रेस ने क्या दिया। लेकिन भाजपा यह कहती है तो सारी चर्चा ओबीसी की तरफ बढ़ जाने का खतरा रहेगा। इसलिए भाजपा इससे भी बचेना चाहेगी। चूंकि संशोधित विधेयक में सबसे बड़ा लाभार्थी ओबीसी ही है। कह सकते हैं, भाजपा भी चाहती है इसकी चर्चा आदिवासी आरक्षण के इर्दगिर्द रहे और कांग्रेस तो लागू होने तक इसे आदिवासी आरक्षण के रूप में प्रचारित कर ही रही है। जाहिर है इसे लेकर किसी एक दल पर गुस्सा करना जरा कठिन हो रहा है। अंत में यह कह सकते हैं यह विधेयक अब नवंबर 2023 तक तो मानकर चलिए आगे बढ़ेगा ही नहीं और यह राजनीति में भी बतौर मुद्दा बहुत सावधानी से इस्तेमाल होगा।  यानि कह सकते हैं यह एक तरह से जलता हुआ अंगारा जरूर बन गया है, जिसे कोई भी लंबे समय तक हाथ में नहीं रखना चाहेगा।

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