Women's reservation bill is still a distant dream

अभी दूर की कौड़ी है महिला आरक्षण बिल

नारी शक्ति वंदन अधिनियम विधेयक के प्रस्तुत होने से एक अटकलबाजी तो रुक गई लेकिन इस बिल के प्रावधान सामने आने के बाद दूसरी अटकलबाजियां

Edited By :   Modified Date:  October 19, 2023 / 09:39 AM IST, Published Date : September 20, 2023/2:01 pm IST

सौरभ तिवारी

नई संसद का पहला दिन, पहले दिन की पहली कार्यवाही, पहली कार्यवाही का पहला उद्बोधन, पहले उद्बोधन में पहले बिल की उद्घोषणा, और इस उद्घोषणा के साथ ही संसद के विशेष सत्र के सरप्राइजिंग एजेंडे को लेकर जारी सस्पेंस पर विराम लग गया। नारी शक्ति वंदन अधिनियम विधेयक के प्रस्तुत होने से एक अटकलबाजी तो रुक गई लेकिन इस बिल के प्रावधान सामने आने के बाद दूसरी अटकलबाजियां और सवाल उठने शुरू हो गए। सबसे बड़ी अटकलबाजी तो यही है कि आखिर ये विधेयक लागू कब से होगा? लागू हुआ तो सीटों के निर्धारण का प्रारूप क्या होगा? महिला सीट तय हो गईं तो फिर उनके रोटेशन की प्रक्रिया क्या होगी?

विधेयक में साफ तौर पर लिखा है कि महिलाओं के लिए एक तिहाई रिजर्वेशन परिसीमन के बाद ही लागू होगा। ये परिसीमन विधेयक के कानून बनने के बाद होने वाली जनगणना के आधार पर होगा। एक्सपर्ट्स के मुताबिक जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया के अलावा आधे से ज्यादा राज्यों की विधानसभाओं से पारित होने की प्रक्रिया के चलते इस महिला आरक्षण विधेयक का 2029 लोकसभा चुनाव के पहले लागू होना मुमकिन नजर नहीं आ रहा। ऐसे में फिर एक नया सवाल उठता है कि जब ये विधेयक अगले लोकसभा चुनाव में लागू ही नहीं हो सकता तो फिर आखिर इस विधेयक को पेश करने को लेकर अभी इतनी जल्दबाजी और तमाशेबाजी क्यों? सवाल बड़ा आसान है-सब वोट का चक्कर है बाबू भैया, वोट का चक्कर—।

पॉलिटिक्स में परसेप्शन का काफी महत्व है। महिला आरक्षण भी परसेप्शन से जुड़ा ऐसा ही मसला है। यही वजह है कि महिला विरोधी ठप्पा लगने से बचाने के लिए सारे ही दल इस दफा बात तो महिला आरक्षण के पक्ष में कर रहे हैं लेकिन ‘टर्म एंड कंडीशन’ के साथ। सबसे बड़ी कंडीशन तो यही है कि महिला आरक्षण जरूर लागू किया जाए लेकिन पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के साथ। याद करिए 2010 में महिला आरक्षण बिल पेश किए जाने पर तब त्रियादव यानी मुलायम, लालू और शरद यादव ने इस विधेयक के खिलाफ कैसी-कैसी दलीलें दी थी। तब भी इन यादवों का डर यही था कि आरक्षण के नाम पर ‘परकटी’ महिलाओं का संसद में कब्जा हो जाएगा। चिंता इस बार भी यही है लेकिन जरा सयंमित। दलित और आदिवासी महिलाओं के आरक्षण कोटे का प्रावधान तो इस बिल में कर ही दिया गया है अब सारा बवाल केवल पिछड़ा वर्ग की महिलाओं के आरक्षण का है। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रमुख असदुद्दीन औवेसी तो पिछड़ा वर्ग के साथ ही मुस्लिम महिलाओं के लिए भी आरक्षण मांग रहे हैं।

राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पर चर्चा के दौरान सोनिया गांधी ने भी OBC वर्ग का कोटा निर्धारित करने की मांग उठाई है। दरअसल OBC वर्ग के आरक्षण को लेकर संवैधानिक पेंच आड़े आ रहा है। संविधान के आर्टिकल 243 D और T में कहीं भी ओबीसी का जिक्र नहीं है। इसी तर्क को सामने रखते हुए भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने चर्चा के दौरान सोनिया गांधी को याद दिलाया कि कांग्रेस देश में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने का श्रेय तो लेती है लेकिन खुद उसने ही उसमें महिला आरक्षण के अंतर्गत OBC कोटा क्यों निर्धारित नहीं किया? भाजपा भले संवैधानिक मजबूरी का हवाला दे रही हो लेकिन उसके सामने विपक्ष ने पिछड़ा वर्ग विरोधी की तोहमत लगने की एक नई चुनौती तो पेश कर ही दी है। अब देखना है कि मोदी सरकार इस तोहमत से पार पाने के लिए क्या जतन करती है। विपक्ष उसे इतनी आसानी से महिला आरक्षण का क्रेडिट लेने देगा नहीं।

पंचायतों में लागू महिला आरक्षण से ही एक और आशंका ये भी उठ रही है कि कहीं संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण लागू करने का हश्र भी पंचायती राज जैसा ही नहीं हो जाए। पंचायतों और नगरीय निकायों में सरपंच और पार्षद ‘पतियों’ की अप्रत्यक्ष दखलंदाजी किसी से छिपी नहीं है। वैसे देखा जाए तो संसद और विधानसभाओं की तस्वीर भी ज्यादा जुदा नहीं है। यहां भी महिला प्रतिनिधित्व के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से पुरुषों का ही दबदबा है। मौजूदा लोकसभा की ही बात की जाए तो 2019 के चुनाव में 78 महिला सांसद निर्वाचित हुईं हैं, लेकिन इनमें से 32 महिला सांसद या तो नेताओं की पत्नी है या फिर बेटी। बिहार से 3 महिला सांसद चुनी गईं हैं और तीनों ही नेताओं की पत्नियां हैं। झारखंड से दो महिला सांसद हैं, और दोनों अपने पति की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रही हैं। 48 सीटों वाली महाराष्ट्र से 8 सांसद महिला हैं, जिनमें से 4 नेताओं की पुत्री और 2 बहुएं हैं।

इधर एक पेंच महिला सीटों के निर्धारण और उसके रोटेशन प्रक्रिया को तय करने का भी है। हालांकि महिला और पुरुष मतदाता लगभग बराबर होने के कारण महिला सीटों के निर्धारण में कोई दिक्कत नहीं आएगी। लेकिन बात जब रोटेशन की आएगी तो सांसदों की टिकट कटने का एक बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा। मौजूदा लोकसभा सीट के आंकड़ों के आधार पर समझें तो महिला आरक्षण लागू हो जाने के बाद 181 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। अगले चुनाव में इतनी ही सीटें रोटेशन के बाद बदल जाएंगी। यानी इन सीटों पर निर्वाचित महिला सांसदों को दोबारा टिकट नहीं मिलेगी। वहीं जब रोटेशन के बाद फिर से 181 नई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी तो इसका मतलब उन 181 सीटों पर निर्वाचित सांसदों की टिकट कट जाएगी। क्योंकि इन सीटों पर अब महिलाएं चुनाव लड़ रही होंगी। इस तरह से देखा जाए हर चुनाव में कुल 362 सीटों पर सांसदों की टिकट कट जाएगी। ऐसी स्थिति में इस आशंका का जन्म लेना लाजिमी है कि जब इन सांसदों को अगले चुनाव में अपनी टिकट कटना पक्का नजर आएगा तो फिर ये सांसद भला उतनी जिम्मेदारी और जवाबदेही के साथ क्यों अपना दायित्व निभाएंगे? इन सांसदों का जब अगले चुनाव में जनता की अदालत में जाने का भय ही नहीं होगा तो इनका अपनी जवाबदेही से विमुख हो जाने की आशंका से कैसे इंकार किया जा सकता है?

तो कुल मिलाकर अभी महिला आरक्षण भले सन 2029 तक की कौड़ी हो लेकिन सरकार के सामने इससे जुड़े सवालों और आशंकाओं का जवाब इसी चुनाव से पहले देने की चुनौती पेश आ गई है। सरकार ने महिला आरक्षण बिल लाकर विपक्ष को चौंका तो दिया है लेकिन अब विपक्ष ने पिछड़ा वर्ग और इसे इसी चुनाव में लागू करने का दोहरा प्रतिदांव चलकर उसके इस मास्टर स्ट्रोक को निष्प्रभावी करने की चाल चल दी है। वैसे देखा जाए तो इन दोनों ही मांगों को राजनीतिक दल खुद ही क्यों नहीं पूरा कर देते। महिला आरक्षण जब लागू होगा तब होगा लेकिन इसे अपने स्तर पर लागू करने से राजनीतिक दलों को किसने रोका है? राजनीतिक दल खुद ही टिकट बंटवारे में महिलाओं के लिए 33 फीसदी टिकट का कोटा निर्धारित करके नई मिसाल क्यों नहीं कायम कर देते?

– लेखक IBC24 में डिप्टी एडिटर हैं।

 
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