#Batangad : इसे आप राहुल गांधी की चारित्रिक विशेषता माने या अवगुण लेकिन ये सच्चाई है कि उनकी सुई अक्सर किसी एक मुद्दे पर अटक जाती है। नोटबंदी, जीएसटी, चीन की घुसपैठ, राफेल, अडाणी- अंबानी के बाद अब उनकी सुई जाति पर आकर अटक गई है। देश की हर समस्या के लिए अडाणी को जिम्मेदार ठहराने वाले राहुल गांधी हर समस्या के समाधान के लिए जाति जनगणना कराने की पैरवी करते घूम रहे हैं। लेकिन राहुल विरोधी तो ताना मार रहे हैं कि जिस शख्स की खुद की दत्तात्रेय गोत्र की ब्राह्मण जाति उनकी मां के ईसाई और दादा के पारसी होने की वजह से संदिग्ध है वो देशवासियों की जाति पता करने की वकालत कर रहा है।
दरअसल राहुल गांधी का जाति का झुनझुना बजाने के पीछे राहुल और उनकी वामपंथी सोच वाली सलाहकार मंडली की ओर से तय की गई विभाजनकारी चुनावी रणनीति है। रणनीति भाजपा के हिंदू वोट बैंक को जातियों में विभक्त करके अपने पाले में लाने की है। इसे आप मंडल-कंमडल पॉलिटिक्स पार्ट-2 के तौर पर देख सकते हैं। तब 1990 में भाजपा ने मंडल कमीशन के दांव की काट के तौर पर रथयात्रा के जरिए कमंडल की राजनीति शुरू की थी, तो इस बार प्रभु श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा के बाद भाजपा के पक्ष में बने जबरदस्त माहौल को निष्प्रभावी करने के लिए मंडल पॉलिटिक्स का पार्ट 2 खेला जा रहा है।
मंडल पॉलिटिक्स पार्ट 2 की शुरुआत हुई बिहार से, जहां नीतीश सरकार ने जातीय सर्वे के आंकड़े सार्वजनिक करके बड़ा दांव खेला। मंडलवादी राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों के लिए इस तरह के दांव चलने में कुछ भी अटपटापन नजर नहीं आता है, लेकिन कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी का जातीय विभाजनकारी राजनीति करना बेहद खतरनाक संकेत देता है। देश अभी भी 90 के दशक में मंडल की राजनीति के घातक सामाजिक प्रभावों की कटु स्मृति को भूला नहीं है। तब आरक्षण के खिलाफ ना जाने कितने युवाओं ने खुद को आग के हवाले कर दिया था। ऐसे में वोट बैंक के लिए देश को फिर से उसी जातीय संघर्ष की आग में झोंकना भला कहां की समझदारी है? राहुल गांधी का ये कहना कि इंडिया गठबंधन के सत्ता में आने पर आरक्षण की 50 फीसदी सीमा को उखाड़ फेंका जाएगा, वाकई खतरनाक संदेश देता है। काश! कांग्रेस कैफ भोपाली के इस शेर पर गौर फरमा पाती -‘आग का क्या है पल दो पल में लगती है, बुझते-बुझते एक जमाना लगता है।’
राहुल गांधी को उनके सलाहकारों ने ओबीसी का झुनझुना थमा तो दिया है लेकिन वो ये भूल गए हैं कि वो ये झुनझुना जिस शख्स के सामने बजा रहे हैं वो ना केवल खुद ओबीसी है बल्कि उसने गरीब, महिला, युवा और किसान के तौर पर चार नई जातियों का वर्गीकरण करके अपना विशाल लाभार्थी वोटबैंक भी बना लिया है। राहुल गांधी के सिपहसालार ये भी भूल गए हैं कि जातीय राजनीति करने के लिए खुद का भी उसी जाति विशेष का होना पहली शर्त है। लेकिन राहुल गांधी तो ठहरे जनेऊधारी दत्तात्रेय ब्राह्मण तो भला ओबीसी, दलित और आदिवासी उनके साथ भला क्यों आएंगे? यही हुआ था मंडल राजनीति के सूत्रधार वीपी सिंह के साथ। उनका ठाकुर होना ही मंडल राजनीति की राह में उनकी सबसे बड़ी बाधा बन गया था। उनकी मंडल कमीशन की नौका पर सवार होकर लालू, मुलायम और देवगौड़ा जैसे पिछड़े वर्ग के नेता तो पार हो गए लेकिन ‘ठाकुर’ वीपी सिंह वहीं खड़े रह गए।
राहुल गांधी के सिपहसालारों की समझ पर वाकई बड़ा तरस आता है कि वे पिछड़ा वर्ग की नुमाइंदे के तौर पर दत्तात्रेय ब्राह्मण कुल के राहुल गांधी को किसके सामने खड़ा कर रहे हैं। वे जिसे ओबीसी वर्ग की अनदेखी का जिम्मेदार मानते हुए घेरने की कोशिश कर रहे हैं वो नैरेटिव गढ़ने में इतना माहिर है कि वो उसे ‘नीच’ बताए जाने पर इसे अपनी जाति से जोड़कर चुनाव में विपक्ष की बखियां उधेड़ चुका है। अब इसे राहुल गांधी की नादानी नहीं तो और भला क्या समझें कि नीच बोलने से उठाए गए नुकसान से सबक लेने की बजाए वो नरेंद्र मोदी को ‘कागजी ओबीसी’ साबित करने की कोशिश कर बैठे। राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी की घांची जाति को उनके मुख्यमंत्री काल में पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का आरोप लगाया था। जबकि तथ्य ये है कि घांची जाति को 27 अक्टूबर 1999 में ओबीसी दर्जा मिला था और उस समय गुजरात में कांग्रेस की सरकार थी और ये मोदी के सीएम बनने से 2 साल पहले की बात थी।
नरेंद्र मोदी को पिछड़ा, दलित और आदिवासी विरोधी साबित करने के लिए राहुल गांधी बचकानी दलील दे रहे हैं। मसलन वो अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान लोगों से पूछ रहे हैं कि अयोध्या में हुए प्राण प्रतिष्ठा समारोह में कितने ओबीसी, कितने दलित और कितने आदिवासी चेहरे नजर आए? वहीं अपनी यात्रा की सभा में उन्होंने एक युवा से पूछा कि जब उसने अपनी टी शर्ट खरीदी तो क्या वो पैसा ओबीसी, दलित या आदिवासी को मिला? राहुल गांधी केंद्रीय प्रशासनिक सेवा के 90 सेकेट्रियों में से केवल 3 के ओबीसी वर्ग के होने पर भी लगातार सवाल उठा रहे है। लेकिन कांग्रेस शासनकाल में इनकी कितनी संख्या थी, इसका कोई जवाब उनके पास नहीं है।
राहुल गांधी एंड कंपनी के इस खुशफहमी की वाकई दाद देनी होगी कि उन्होंने जातीय जनगणना का झुनझुना बजाकर मतदाताओं को लुभाने की रणनीति बनाई है। ये झुनझुना इन्होंने हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान भी जोर-शोर से बजाया था। कांग्रेस कार्यसमिति से प्रस्ताव पास कराने के अलावा उन्होंने विधानसभा चुनाव के अपने घोषणापत्रों में भी जातीय जनगणना कराने का वादा किया था, लेकिन नतीजे बताते हैं कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मतदाताओं ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया। दरअसल राहुल गांधी के सिपहसालार ये तथ्य भूल जाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना जो लाभार्थी वोट बैंक बनाया है, उसमें अधिकतम हिस्सेदारी उसी पिछड़ा, दलित और आदिवासी वर्ग की है जिसकी संसाधन में हिस्सेदारी की वकालत राहुल गांधी कर रहे हैं। लोकनीति-ईएसडीएस का सर्वे बताता है कि ओबीसी वर्ग में आने वाले नरेंद्र मोदी का ये वोटबैंक चुनाव-दर-चुनाव बढ़ता जा रहा है। सर्वे के मुताबिक 1996 में 29 फीसदी ओबीसी ने भाजपा को वोट दिया था जो नरेंद्र मोदी की ओर से कमान संभालने के बाद 2014 में बढ़कर 37 फीसदी हो गया था। 2019 में इसमें और बढ़ोतरी हुई और 44 फीसदी ओबीसी वर्ग के लोगों ने भाजपा को वोट दिया।
इसके उलट अगर मंडलवादी राजनीति के झंडाबरदारों की ही बात करें तो सन 1991 में अपने ऊभार के सर्वोत्तम दिनों में उनके पास 64 सीटें और 15 फीसदी वोट था जो नरेंद्र मोदी के सेकंड टर्म वाले चुनाव यानी 2019 में घटकर 35 सीट और 8 फीसदी वोट में सिमट गया। नरेंद्र मोदी के दावे- ‘इस बार, 400 पार’ के साये में कुछ दिनों बाद होने जा रहे चुनाव में जातीय राजनीति करने वालों का ये आंकड़ा कहां पहुंचता है, ये जरूर देखने वाली बात होगी।
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1 week ago