Ram Mandir has not set the agenda but the result of Lok Sabha elections

बतंगड़ः राम मंदिर ने लोकसभा चुनाव का एजेंडा नहीं बल्कि रिजल्ट सेट कर दिया है

Batangad : चुनाव से पहले हर राजनीतिक दल की कोशिश होती है कि वो कुछ ऐसा 'बड़ा' करे जो उसकी जीत का एजेंडा साबित होकर उसे सत्ता तक पहुंचा दे।

Edited By :   Modified Date:  January 24, 2024 / 04:08 PM IST, Published Date : January 24, 2024/3:44 pm IST

चुनाव से पहले हर राजनीतिक दल की कोशिश होती है कि वो कुछ ऐसा ‘बड़ा’ करे जो उसकी जीत का एजेंडा साबित होकर उसे सत्ता तक पहुंचा दे। इसी कवायद के चलते चुनावों में ‘मास्टर स्ट्रोक’ चलने की परंपरा रही है। लेकिन भाजपा ने तो लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के जरिए चुनाव का एजेंडा नहीं बल्कि सीधा रिजल्ट सेट कर दिया है। एजेंसियों और न्यूज चैनलों का एक्जिट पोल तो मतदान के बाद मतदाताओं के ‘सर्वे’ के आधार पर आएगा, लेकिन जनभावनाओं का उभार साफ संकेत दे रहा है कि ‘राम तो आ गए हैं’ बस अब भाजपा का आना बाकी है। राम की वापसी ने भाजपा की वापसी का मार्ग आसान कर दिया है।

सियासत की सामान्य सी भी समझ रखने वाले किसी भी शख्स से पूछ लीजिए वो यही कह रहा है कि भाजपा पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने जा रही है। भाजपा की सत्ता वापसी की ये आश्वस्ति बताती है कि इस बार तो भाजपा के सीटों की गिनती ही उसके मौजूदा आंकड़े 302 से शुरू होगी। उत्सुकता केवल इस बात को लेकर है कि उसका ये आंकड़ा 400 के पार कहां जाकर रुकेगा? विपक्ष चाहे तो अभी से वो ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठा कर अवश्यंभावी नजर आ रही अपनी हार का मलाल कम करने जतन कर सकती है।

विपक्ष भाजपा पर राममंदिर का राजनीतिक लाभ लेने का आरोप लगा रहा है। सवाल उठता है कि आखिर भाजपा को इसका लाभ क्यों नहीं उठाना चाहिए? ये प्रमाणिक तथ्य है कि भाजपा को 2 से 302 सीटों तक के ऐतिहासिक बहुमत तक पहुंचाने में राम मंदिर के निर्माण के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का अहम योगदान है। 1980 में अपने जन्म से लेकर 2019 के पिछले चुनाव तक राममंदिर भाजपा के एजेंडे में रहा है। भाजपा ने 1989 के आम चुनाव में पहली बार राममंदिर निर्माण का संकल्प अपने घोषणापत्र में व्यक्त किया जो 2004 को छोड़कर उसके हर चुनाव में सम्मिलित होता आया।

2004 के चुनाव में भाजपा ने शाइनिंग इंडिया और अटल बिहारी बाजपेयी के उदारवादी चेहरे पर भरोसा करके राममंदिर मुद्दे को घोषणापत्र से दरकिनार किया, जिसका खामियाजा उसे सत्ता से दरकिनार होकर चुकाना पड़ा। हार से मिले संदेश से सबक लेकर भाजपा आगे हर चुनाव में राममंदिर के प्रति अपना संकल्प दोहराती रही। हालांकि प्रतिबद्धता में थोड़ी नरमी ये आई कि राममंदिर को आस्था का विषय बताते हुए इसका फैसला कोर्ट से नहीं होने की दलील देने वाली भाजपा अब कानूनी-संवैधानिक बाधाओं को दूर कर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने की दुहाई देने लगी थी। नतीजतन उसे ‘मंदिर वहीं बनाएंगे लेकिन तारीख नहीं बताएंगे’का ताना भी सुनना पड़ता था। 2014 के आम चुनाव में भाजपा के महानायक नरेंद्र मोदी की इंट्री हुई और उसके बाद की गाथा भाजपा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और विकास के अद्भुत संयोजन ने राजनीति के सारे मानकों और धारणाओं को ध्वस्त कर दिया। हालांकि राम मंदिर निर्माण का वादा अब भी भाजपा के घोषणा पत्र तक ही सिमटा था। 2019 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की वापसी हुई और इस बार पार्टी ने राममंदिर निर्माण की राह में आने वाली ‘कानूनी और संवैधानिक बाधाओं’ को दूर करने का संकल्प पूरा कर दिखाया। अपने घोषित एजेंडे को पूरा करने का श्रेय हासिल करना किसी भी दल का जायज हक है। अब ऐसे में भला भाजपा के श्रेय लूटने पर विरोधियों के सीने पर सांप क्यों लोटना चाहिए?

धार्मिक भावनाओं को अपने सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाने वाली कांग्रेस ये भूल जाती है कि 1984 में उसने भी तो जनभावनाओं को कुछ इसी तरह से भुना कर ऐतिहासिक प्रचंड बहुमत हासिल किया था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सहानुभूति लहर पैदा करने के लिए ना केवल उनकी पार्थिव देह को टीवी स्क्रीन पर कई दिनों तक दिखाया जाता रहा बल्कि उनके अस्थिकलश को गांव कस्बों में ठेले पर रखकर मातम धुन के साथ घुमाया गया। कांग्रेस ने इंदिरा की शहादत को इस तरह भुनाया कि विपक्ष के तमाम दिग्गज नेता तक अपनी जमानत जब्त करा बैठे।

वैसे राममंदिर निर्माण में सहभागी बनकर श्रेय लेने का अवसर तो इतिहास ने कांग्रेस को भी दिया था। कैसी बिडंबना है कि जिस कांग्रेस पर उसके शासनकाल में 1986 में राममंदिर का ताला खुलवाने और 1989 में शिलान्यास करवाने में अप्रत्यक्ष सहयोग करने का आरोप लगता हो, उसी कांग्रेस को राममंदिर निर्माण की राह में बाधा खड़ी करने का अपयश भोगना पड़ रहा है। कांग्रेस के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि जिसके प्रधानमंत्री ने अक्टूबर 1989 में फैजाबाद से अपने चुनाव प्रचार अभियान का आरंभ रामराज लाने के वादे के साथ अप्रत्यक्ष रूप से राममंदिर निर्माण के प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए किया था, उसी पार्टी की छवि कालांतर में रामद्रोही की बन गई है। रामद्रोही के कलंक से मुक्ति पाने का अवसर खुद प्रभु श्रीराम ने कांग्रेस को अपनी प्राण प्रतिष्ठा समारोह में सम्मिलित होने का दिया था। लेकिन कांग्रेस ने आमंत्रण को ठुकरा कर कितनी बड़ी गलती कर बैठी है, इसका आभास उसे नहीं है। कांग्रेस ने तो खैर जैसे गलतियों से कोई सबक नहीं सीखने की कसम खाए बैठी है।