बरुण सखाजी. राजनीतिक विश्लेषक
Mahasamund Loksabha seat analysis छत्तीसगढ़ में भाजपा ने सभी 11 और कांग्रेस ने 6 लोकसभा क्षेत्रों के लिए अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं। मोदी की गारंटी, धारा 370, ट्रिपल तलाक, सीएए, पीएम आवास, उज्जवला आदि के जरिए भाजपा उत्साहित है तो 30 लाख रोजगार, मुस्लिम, दलित, ओबीसी, आदिवासी को उपेक्षित बताकर साथ जोड़ने की कोशिश कर रही कांग्रेस भी आशान्वित है। इंडी गठबंधन के जरिए तमाम विपरीत, अनुरूप विचारों के दलों को एक मंच पर लाकर चुनावी बिगुल फूंकने की कोशिश कर रही कांग्रेस छत्तीसगढ़ से नाउम्मीद नहीं है। वह मानती है बड़े नेताओं को लड़ाने से बड़ा माहौल बनता है, बड़े परिणाम भी आने की संभावना रहती है। मध्यप्रदेश में ऐसा भाजपा करके दिखा चुकी है। 2023 के चुनावों में शिवराज सरकार की हालत को कोई भी भाजपा के लिए अनुकूल नहीं बता रहा था। ऐसा ही छत्तीसगढ़ में था। यहां तो कोई कल्पना भी नहीं कर पा रहा था कि भाजपा जीत जाएगा। लेकिन बड़े नेताओं को उतारा गया, एमपी में लाडली बहना और छत्तीसगढ़ में महतारी वंदन के ऐलान ने करिश्मा कर दिखाया।
Mahasamund Loksabha seat analysis छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने 6 सीटों पर ऐलान करके आमने-सामने की फाइट को क्लीयर कर दिया है। इसका विश्लेषण बहुत जरूरी है। आखिर छत्तीसगढ़ की इन 6 सीटों की क्या स्थिति रह सकती है। क्या कांग्रेस ने सही प्रत्याशी भाजपा के सामने उतारे हैं? क्या भाजपा अपनी केंद्र और प्रदेश की सरकार के बूते कांग्रेस के विधानसभा की तरह बैक फुट पर लाने के लिए तैयार है?
सबसे पहले बात महासमुंद की
पैमाना प्रत्याशी का, कौन किस पर भारी
महासमुंद से भाजपा ने रूपकुमारी चौधरी को उतारा है तो कांग्रेस ने पूर्व गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू को मैदान दिया है। साहू बाहुल्य इस सीट पर भाजपा ने मौजूदा सांसद चुन्नीलाल साहू का टिकट काटकर अघरिया समुदाय से ताल्लुक रखने वाली पूर्व विधायक व संसदीय सचिव रहीं रूपकुमारी को आजमाया है। जातिय संगणना से देखें तो रूपकुमारी ताम्रध्वज की तुलना में जूनियर हैं। ताम्रध्वज साहू 2014 की लोकलहर में भी छत्तीसगढ़ से इकलौती कांग्रेसी सीट दिलाने में कामयाब नेता रहे हैं। 2018 में जब सरकार बनी तो उनका नाम मुख्यमंत्री के लिए आता-जाता रहा तो वे एक कद्दावर नेता बनकर उभरे हैं। वे प्रदेश सरकार गृहमंत्री भी रह चुके हैं। तो बतौर प्रत्याशी तो साहू का कद ऊंचा दिखाई दे रहा है। किंतु महिला वोटर के मामले में 2017 से ही भाजपा जादुई सियासत कर रही है। यूपी में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा को वोट दिया था। इसके बाद से ही भाजपा ने अपने हिडेन इलेक्शन एजेंडे में महिलाओं को तवज्जो देना शुरू किया है। पार्टी मानती है किसी भी क्षेत्र में 50 प्रतिशत तो महिलाएं होती ही हैं और वे वोटिंग भी अब पुरुषों से हटकर कर रही हैं। वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन रही हैं और परिवार के फैसलों में मुखरता से आगे आई हैं। इसलिए अगर किसी चुनाव में अच्छी जीत हासिल करना है तो महिलाओं को फोकस करना चाहिए। भाजपा के लिए हिंदू एजेंडा और महिला एजेंडा सुरक्षित चुनावी एजेंडे हैं। जबकि जात-पांत या धर्म, समुदाय, अगड़े-पिछड़े की सियासत के दिन अब लद गए हैं। ऐसे में भाजपा महिला प्रत्याशी के जरिए ताम्रध्वज साहू को घेर भी सकती है।
सीट का समीकरण, साहू स्वामित्व से क्यों बाहर आई भाजपा
महासमुंद लोकसभा क्षेत्र में 8 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। बसना, महासमुंद, सरायपाली, खल्लारी, धमतरी, कुरूद, राजिम और बिंद्रानवागढ़। 2009 से यह सीट भाजपा के पास है। दो बार चंदूलाल साहू और एक बार चुन्नीलाल साहू यहां से जीत चुके हैं। इससे पहले 2004 का चुनाव रोचक था, जब अजीत जोगी यहां से मैदान में थे और देश में आज की मोदी लहर की तरह शाइनिंग इंडिया चल रहा था। 2014 में जब यहां से अजित जोगी फिर से लड़ने आए तो 11 चंदूलाल साहू नाम के कैंडीडेट उतारकर देशभर में सुर्खियां बटोरने में कामयाब रहे, लेकिन सीट नहीं जीत पाए। मूलतः शुक्ल बंधुओं की रही यह सीट खेती प्रधान है। यानी किसानों की सीट है। श्यामा चरण शुक्ल ने जो छत्तीसगढ़ में नहरों का जाल बिछाया था उसका केंद्र रहा है यह। इसलिए यहां दो सामाजिक ताने-बाने मजबूत हैं। एक साहू समाज की सियासत दूसरी किसानों की सियासत। भाजपा ने पिछले 30 वर्षों में लोकसभा चुनावों में पहली बार ऐसा किया है जब साहू कैंडीडेट नहीं उतारा। यही भाजपा के लिए थोड़ा असहज करने वाला है। परंतु भाजपा इस वक्त अपने नेता की लोकप्रियता के चरम पर है। देश में हिंदुत्व के उभार पर है। केंद्र सरकार के कार्यों को लेकर सकारात्मक माहौल के दौर में है। संभवतः इसीलिए जान-बूझकर साहू कैंडीडेट से किनारा किया है। भाजपा नहीं चाहती देश में कहीं भी कोई ऐसा फॉर्मूला उसका जीत का मंत्र बने जिसके टूटते वह हारना शुरू कर दे। जैसा कि लिंगायत-वुक्कालिग्गा के मामले में कर्नाटक में हुआ। महासमुंद भाजपा की रणनीति में सिर्फ छत्तीसगढ़ का सिर्फ एक लोकसभा क्षेत्र नहीं है बल्कि यह महासमुंद को साहू स्वामित्व से बाहर निकालने की स्ट्रेटजी भी है। अगर सीट भाजपा जीत जाती है तो समझना होगा वह महासमुंद के जरिए देश की ऐसी हर सीट पर यह प्रयोग करेगी और इन सीटों को किन्हीं भी स्वामित्वों से बाहर लाएगी और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। किंतु अगर भाजपा हार जाती है तो यह सीट सदा के लिए साहू सीट बन जाएगी। कांग्रेस ने बहुत अप्रयोगधर्मिता दिखाई है। पारंपरिक ढंग से पहले धनेंद्र साहू का नाम उछाला फिर ताम्रध्वज साहू को मैदान दे दिया।
कौन भारी, किसकी बारी
सीट का इतिहास मिश्रित है। किंतु ज्यादातर समय कांग्रेस ही चुनाव जीतती रही है। क्योंकि पहले भाजपा देश की अधिकतर सीटों पर फाइट में ही नहीं रहती थी। लेकिन सीटों का सही मूल्यांकन वर्ष 1999 के बाद से करना चाहिए। तब से अब तक 2024 में छठा लोकसभा चुनाव होगा। 1999 और 2004 को छोड़ दें तो महासमुंद में बाकी समय भाजपा ही जीती है। 2008 में हुए परिसीमन के बाद से एक भी चुनाव कांग्रेस नहीं जीत पाई। इसलिए यहां भाजपा का पलड़ा पार्टी लेवल पर थोड़ा भारी दिख रहा है। इस भार में और वृद्धि हो रही है केंद्र की मोदी सरकार के काम-काज से। भाजपा की पेशवर ढंग से चुनाव लड़ने की क्षमता से और कमजोर कांग्रेस के कारण।
तो एक लाइन में क्या कहें, कौन जीतेगा
महासमुंद में एक लाइन जैसी कोई चीज कहना ठीक नहीं है। यहां साहू निर्णायक हैं। कांग्रेस ने साहू पर दांव खेला है। भाजपा अरुण साव को अधिक एक्टिवेट रखेगी। बिलासपुर में साहू को देकर संदेश दे दिया है, साहू उसकी कोर सियासत से दूर नहीं, किंतु यह सब जैसा सोचा, समझा, किया है वैसा का वैसा साहू वोटर्स तक पहुंचाना चुनौती होगा। यह काम अरुण साव कर सकते हैं, जो साहू समाज के प्रदेश के पहले उपमुख्यमंत्री बने हैं।
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1 week ago