मोदी की लकीर के छोटे होने की बजाय राहुल को बड़ी लकीर खींचने की कोशिश करनी चाहिए: प्रशांत गुप्ता |

मोदी की लकीर के छोटे होने की बजाय राहुल को बड़ी लकीर खींचने की कोशिश करनी चाहिए: प्रशांत गुप्ता

मोदी की लकीर के छोटे होने की बजाय राहुल को बड़ी लकीर खींचने की कोशिश करनी चाहिए: प्रशांत गुप्ता

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:07 PM IST, Published Date : October 31, 2021/12:30 pm IST

नयी दिल्ली, 31 अक्टूबर (भाषा) कोरोना महामारी के दुष्प्रभावों, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों, कमरतोड़ महंगाई और किसानों के आंदोलन के बीच अगले साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश और पंजाब सहित पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं।

देश की राजनीति से संबंधित इन्हीं पहलुओं पर जाने-माने चुनाव विश्लेषक तथा ‘‘एक्सिस माय इंडिया’’ के अध्यक्ष व प्रबंध निदेशक प्रदीप गुप्ता से भाषा के पांच सवाल और उनके जवाब:

सवाल: अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले आपकी नजर में देश का ‘मूड’ कैसा है?

जवाब: चुनाव दो-तीन चीजों के इर्द-गिर्द घूमता है। सबसे पहले तो जनता की अपनी कुछ आशाएं, अभिलाषाएं और उम्मीदें होती हैं। सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे अलग-अलग राज्यों में अलग समय पर अलग-अलग होते हैं। तीसरा है नेता, जिन्हें जनता चुनती है। अमेरिका में जैसे राष्ट्रपति चुनाव होते हैं, भारत में अब चुनाव धीरे-धीरे उस ओर बढ़ता जा रहा है। व्यक्ति विशेष आधारित चुनाव। आज की तारीख में चुनाव मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। उत्तर प्रदेश और मणिुपर के मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता बरकरार दिख रही है जबकि गोवा में कोरोना के ‘कुप्रबंधन’ के कारण ऐसा नहीं है। उत्तराखंड और पंजाब के मुख्यमंत्री को तो अभी खुद को साबित करना है। जैसे-जैसे चुनाव सामने आते हैं, क्षेत्रीय पार्टियां प्रमुख पार्टियों के साथ गठबंधन कर लेती है लेकिन इस बार गठबंधन के उलट सभी अलग-अलग चुनाव लड़ने के ‘मूड’ में हैं। ऐसे में मतों का विभाजन होना लगभग तय है। रही बात देश के ‘मूड’ की तो किसी भी चुनाव में महंगाई और बेरोजगारी सबसे बड़े मुद्दे होते हैं। आज महंगाई बढ़ रही है और निश्चित तौर पर यह एक विषय होगा लेकिन क्या महंगाई अकेला मुद्दा होगा। ‘नहीं’, बिहार चुनाव में बेरोजगारी बहुत बड़ा मुद्दा था लेकिन नतीजे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पक्ष में आए। कोरोना के हिसाब से हम देखें तो आज हम पहले के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं। जनता वर्तमान व पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं से होने वाले नफा-नुकसान का भी आकलन करती है। देश में अमूमन 65 प्रतिशत मतदान होता है। मतलब 35 प्रतिशत लोग मतदान ही नहीं करते। मतदान करने वाले 65 प्रतिशत में 80 प्रतिशत गरीब और ग्रामीण होते हैं। उनका जीवन बहुत हद तक सरकार पर निर्भर करता है। केंद्र की वर्तमान सरकार की योजनाओं को देखें तो लोगों को अनाज व आवास मिल रहा है। शिक्षा व स्वास्थ्य की उनकी चिंताओं का भी समाधान हुआ है।

सवाल: कोरोना की मार, तेल की कीमतें व बढ़ती महंगाई से आम आदमी का जीना मुहाल हुआ है। तो क्या इनका चुनावों पर कोई असर नहीं होगा?

जवाब : निश्चित तौर पर ये मुद्दे हैं लेकिन जो मुद्दे हमें ऐसे लगते हैं कि ये बहुत बड़े मुद्दे हैं, धरातल पर एक बड़ी आबादी के लिए ये मुद्दे नहीं होते हैं। उनके लिए रोजमर्रा के जीवन यापन के मुद्दे होते हैं। एक विषय के साथ जब कई सारे मुद्दे जुड़ते हैं तो उसका असर होता है। लेकिन दूसरे पक्ष के भी अपने मुद्दे होते हैं। सरकार विरोधी मत होते हैं लेकिन उनका भी विभाजन होता है। सरकार की कई ऐसी योजनाएं है जिनसे जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी हो रही हैं। वह भी तो असर डालेंगे।

सवाल: कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन का चुनावों पर क्या असर देखते हैं आप?

जवाब: पंजाब में 50 प्रतिशत से अधिक लोगों का जीवन खेती पर निर्भर करता है। वहां कृषि कानून बहुत बड़ा मुद्दा है। बहुत ज्यादा विरोध है। इसका जबरदस्त असर भी दिख रहा है। अकाली दल के अलग होने के बाद भारतीय जनता पार्टी अकेले मैदान में है। कांग्रेस सरकार में है और आम आदमी पार्टी भी मजबूती से डटी हुई है। निश्चित तौर पर इसका असर होगा। रही बात उत्तर प्रदेश की तो यहां के पश्चिमी हिस्से में ही कृषि कानूनों का विरोध है। इसमें भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आधे हिस्से में इसका प्रभाव है। सीटों के लिहाज से पूर्वी उत्तर प्रदेश में सीटों की संख्या सबसे अधिक है और उसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब 136 सीटें आती हैं। इसमें आगरा, अलीगढ़ और मथुरा भी जुड़ा हुआ है, जहां कृषि कानूनों का उतना विरोध नहीं है। इसलिए मेरा मानना है कि 15 से 20 प्रतिशत तक मतों पर ही कृषि कानूनों का प्रभाव रहेगा।

सवाल: कांग्रेस की वर्तमान स्थिति का आप कैसे आकलन करेंगे?

जवाब : परिस्थितियों का बनना और बिगड़ना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। जो आज ऊपर होता है, वह कल नीचे जाता है। जो कल नीचे होता है, वह ऊपर आता है। यह घर, परिवार, समाज और यहां तक कि व्यवसायिक घरानों में भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली प्रक्रिया होती है। वही परिस्थिति आज कांग्रेस के परिप्रेक्ष्य में बदल रही हैं। 100 साल से ज्यादा पुरानी पार्टी है। वर्ष 2014 के बाद से उसमें लगातार गिरावट हो रही है। गिरावट तो होगी लेकिन देखने वाली बात यह है कि इसका ग्राफ ऊपर कब जाना आरंभ होगा। इसके लिए मैं हमेशा कहता हूं कि भाजपा ने समय के साथ अपनी ‘मशीनरी’ को अपडेट किया है। जब आपको पता है कि 65 प्रतिशत जनता युवा है तो आप पुरानी सोच के साथ नहीं चल सकते। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पिछले चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस के पास दो विकल्प थे। राजस्थान में अशोक गहलोत या सचिन पायलट, मध्य प्रदेश में कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल या टी एस सिंह देव। अब आप देख लीजिए- तीनों राज्यों की क्या स्थिति है। एक कदम आगे बढ़कर पंजाब की ही स्थिति देख लीजिए। आपको इस सवाल का जवाब मिल जाएगा। आपको मशीन को अपडेट करते रहना पड़ेगा, समय के अनुकूल चलना पड़ेगा। जब आप नयी उर्जा प्रवाहित करेंगे तब आप उठने के काबिल हो जाएंगे।

सवाल: 2024 के चुनाव के मद्देनजर क्या संभावित राजनीतिक परिस्थिति आप देखते हैं?

जवाब: जब तक विरोधी पक्ष के वोटों का विघटन होते रहेगा, सरकार के खिलाफ नाराजगी वाले मतों का विभाजन होता रहेगा तब तक वर्तमान सरकार को कहीं कोई दिक्कत नहीं होगी। राजनीतिक विश्लेषक प्रशांत किशोर का बयान कि कई दशकों तक भाजपा का दबदबा रहने वाला है, इसी के संदर्भ में है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी लकीर के छोटे होने का इंतजार कर रहे हैं ताकि उनकी लकीर बड़ी दिखने लगे। यदि आप को जीतना है तो इसके लिए आपको बड़ी लकीर खींचनी होगी। वही चीज, वही तरीके, जिन्हें आजमा कर आप विफल हो चुके हैं तो आपको परिणाम भी वही मिलेंगे। आप लकीर के छोटे होने का इंतजार करेंगे तो आज मोदी हैं, कल योगी हो जाएंगे और परसों कोई और हो जाएगा।

भाषा ब्रजेन्द्र अविनाश

अविनाश

 

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