रायपुर। लोकसभा चुनाव में अमेटी और रायबरेली को लेकर कई दिनों से सस्पेंस चल रहा था। सस्पेंस खत्म तो हुआ लेकिन एक ट्विस्ट के साथ। अमेठी रायबरेली से कौन कांग्रेस का उम्मीदवार होगा, इस सस्पेंस पर पर्दा तो हट गया, लेकिन इस ट्विस्ट के साथ कि राहुल गांधी अमेठी की बजाय अब रायबरेली से चुनाव लड़ेंगे। वह रायबरेली शिफ्ट हो गए हैं। तो क्या यह कांग्रेस की रणनीति है या राजनीतिक हार है?
इस पर मैं एक बात कहना चाहता हूं कि देर आए लेकिन दुरुस्त नहीं आए। बहुत देर कर दी जनाब आते-आते …कुछ इस तरह के गाने मेरे दिमाग में घूम रहे हैं, जब मैं यह पूरी घटनाक्रम देख रहा था। राहुल गांधी के मुताबिक अगर उनका मेनिफेस्टो लोगों को आकर्षित कर रहा है और चुनाव में बीजेपी हार रही है, तो फिर ऐसी सीट जो उनकी खानदानी है, विरासत में उनको मिली है और जो उनके लिए सबसे सेफ मानी जाती हैं, उन सीटों को छोड़कर आपने रायबरेली की तरफ रास्ता कर लिया और वह भी इतना सस्पेंस रखने के बाद, मतलब यह तो गजब है कि यह आपकी सबसे सेफ सीट मानी जाती हैं और आप इतने दिनों तक सस्पेंस रखा। आपने उन चीजों को छोड़ दिया, जो आपका नारा है, ‘डरो मत’ उसका क्या होगा ? क्या यह नारा सिर्फ कार्यकर्ताओं के लिए था? गांधी परिवार के लिए नहीं था ?
अब लोग पूछ रहे हैं कि क्या सही में ऐसा डर का माहौल था कि अमेठी की सीट छोड़नी पड़ी? तो मेरी समझ से यह पूरी तरह से मानसिक, रणनीतिक और राजनीतिक हार है। लीडर वही होता है जो सामने से आकर चुनौती को स्वीकार करें, आपने अमेठी छोड़ी मतलब आपने रन छोड़ दिया। यूपी की 80 सीट हैं जो किसी भी लोकसभा के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। अभी भी वहां 64 सीट बाकी हैं, जिन पर चुनाव होना है। अब आपका कार्यकर्ता क्या सोचेगा ?जिसका नेता ही मैदान छोड़ गया उसका कार्यकर्ता का खाक चुनाव लड़ेगा? रायबरेली से लड़ना कोई बहादुरी नहीं है मेरे हिसाब से वह तो आपके परिवार की सबसे सेफ सीट है। तो यह जो सारा घटनाक्रम हुआ यह बड़ा अजीब सा है।
मुझे यह लगता है कि जो निर्णय हुआ, जो इतनी बातें वह अपनी मेनिफेस्टो की सब जगह कर रहे हैं, तो क्या उन्हें अपने मेनिफेस्टो में विश्वास नहीं है? क्या उन्हें अपने कार्यकर्ताओं पर विश्वास नहीं है ? क्या उनको अपनी अमेठी की जनता पर विश्वास नहीं है ? जिसे वह कहते हैं कि वह उनको बहुत प्यार करते हैं। कार्यकर्ताओं ने आपको इतना प्यार दिया था, क्या पता वह दोबारा अपना प्यार लुटा देते। कोई बहुत ज्यादा अंतर से स्मृति ईरानी पिछली बार नहीं जीती थी। आप पहले लड़ने का जज्बा तो दिखाते लेकिन जो लड़ा नहीं वह हारा ही माना जाता है। बहादुरी तब होती जब पहली लिस्ट में ही आपका नाम अमेठी और वायनाड दोनों जगह से डिक्लेयर किया जाता। इतना सस्पेंस के बाद भी आपने सीट छोड़ दिया तो इसको लड़ाई से पहले हार कहा जाता है।
अगर मैं दूसरे पक्ष की बात करूं तो उनकी पहली लिस्ट में सबसे ऊपर नाम नरेंद्र मोदी जी का था। और जितने बड़े नेता हैं उन्होंने अपनी अपनी सीटों पर चुनाव लड़ा है। यह जो पूरा आज का घटनाक्रम है, भले ही उसको कितना बढ़ा चढ़ा कर बताएं कि रायबरेली भी उनकी सीट है, यह मुझे लगता नहीं कुछ ऐसा है, यह एक तरीके से मानसिक, राजनीतिक और राजनीतिक हार ही मानी जाएगी।
मेरी नजर में राजनीति तो वह होती जब प्रियंका और राहुल गांधी दोनों चुनाव लड़ते, एक अमेठी से और दूसरा रायबरेली से लड़ता। रणनीति तो वह होती जिसमें जो नेता है, जो लीडर है, वह एक आदर्श स्थापित करता और आगे बढ़कर चुनौती स्वीकार करता, वह रणनीति मानी जाती है। यह कोई युद्ध या कोई स्क्विड गेम की सीरीज थोड़ी है, जिसमें मरकर ही वापस आना है। अरे भाई जीत कर भी वापस आ सकते थे। तो यह बड़ी अजीब सी बात है, लेकिन देखिए अंदर की खींचतान चल रही है, दुविधा है, आत्मविश्वास की कमी है, फैसले लेने में इतनी देरी है,अगर इसको आप रणनीति का नाम दे रहे हैं, तो आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं। इस तरह से युद्ध या चुनाव नहीं लड़े जाते, क्योंकि मैं कितने सालों से चुनाव को देख रहा हूं। नेता जो बड़े-बड़े होते हैं और लड़ते हैं हार जीत लगी रहती है। आप अगर दूसरी बार लड़ते, तो हो सकता है कि इस बार अमेठी आपको जीत देती। इसलिए यह कोई रणनीति नहीं है, यह केवल एक रणछोड़ नीति है, जिसे आज राहुल गांधी ने दिखा दिया है। रणछोड़ नीति पर क्या जनता की मोहर लग पाएगी? यह अब आने वाला समय ही बता पाएगा कि कांग्रेस की रणनीति में कितना दम है।