हमेशा कुछ नया सोचने वाले महान निर्देशक पीटर ब्रूक ने थिएटर को नयी परिभाषा दी |

हमेशा कुछ नया सोचने वाले महान निर्देशक पीटर ब्रूक ने थिएटर को नयी परिभाषा दी

हमेशा कुछ नया सोचने वाले महान निर्देशक पीटर ब्रूक ने थिएटर को नयी परिभाषा दी

:   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:37 PM IST, Published Date : July 4, 2022/8:44 pm IST

मेलबर्न, 4 जुलाई (द कन्वरसेशन) मैं कोई भी खाली जगह को एक खुला मंच कह सकता हूं। एक ऐसा आदमी जो इस खाली जगह से गुजरता है, जबकि कोई और उसे देख रहा है, और थिएटर के लिए बस इतना होना ही काफी है।

तो इस तरह ब्रिटेन के मशहूर रंगमंच निर्देशक पीटर ब्रुक द्वारा द एम्प्टी स्पेस (1968) की शुरूआत हुई, जिनका शनिवार को 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वह संस्कृत के महाकाव्य, महाभारत को रंगमंच पर पेश करने के लिए प्रसिद्ध थे।

ब्रुक का यह विचार और उनकी यह किताब आधुनिक नाटक के सबसे प्रभावशाली हस्ताक्षरों में से एक है। इसका मूल विचार, ब्रुक के शुरुआती वाक्य में समाहित है, जो उनकी स्थायी लेकिन जटिल विरासत को दोनो हाथों से थाम लेता है।

1925 में लंदन में जन्मे, ब्रूक रॉयल शेक्सपियर कंपनी में एक युवा निर्देशक के रूप में एक ऐसे समय में आए, जब 20 वीं शताब्दी के थिएटर के यूरोपीय नवप्रवर्तकों का काम ग्रेट ब्रिटेन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगा था।

रूसी निर्देशक कॉन्स्टेंटिन स्टानिस्लावस्की (1863-1938) ने अभिनय में मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद की वकालत की। जर्मनी के बर्टोल्ट ब्रेख्त (1998-1956) के मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र ने दर्शकों में शोषक सामाजिक ताकतों पर एक आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य विकसित करने की मांग की।

फ्रांसीसी लेखक एंटोनिन आर्टौड (1896-1948) ने शरीर पर सीधे प्रभाव डालने वाले ‘क्रूरता के रंगमंच’ की कल्पना की।

ऐसे में यह सवाल उठता है कि थिएटर की किस तरह की कार्यप्रणाली और सौंदर्य नवाचार ने ब्रूक को प्रेरित किया कि वह रंगमंच के बारे में लोकप्रिय पाठक के लिए लुभावने अंदाज के गद्य में लिखने का तरीका ईजाद कर पाए, जिसे उन्होंने अपने पूरे करियर में आगे बढ़ाया।

इंसान होने की अनिवार्यता

ब्रुक के लिए, थिएटर के लिए केवल एक स्थान, एक अभिनेता और एक दर्शक की जरूरत होती है। बाकी सब पूरक है।

उन्होंने अपनी कई प्रस्तुतियों से अपनी इस बात को साबित भी किया।

इनमें पॉल स्कोफिल्ड की विशेषता वाले किंग लियर (1962) का एक गंभीर मंचन शामिल था, जिसपर 1971 में फिल्म भी बनी। उसके बाद मराट/साडे (1964) का नियंत्रित पागलपन सामने आया, और ए मिडसमर नाइट्स ड्रीम (1970) को तो कौन भूल सकता है।

अपने इस खोजी नवाचार के कारण ब्रूक ज्यादा दिन तक ब्रिटिश थिएटर की हदों में समा नहीं पाए। उन्होंने 1970 में पेरिस में इंटरनेशनल सेंटर फॉर थिएटर रिसर्च की स्थापना की और व्यापक रूप से यात्रा करना शुरू किया।

उनका लक्ष्य, जैसा कि उन्होंने कहा, ‘संदर्भों के बाहर’ काम करना था। 1979 में, ब्रूक अपनी अंतरराष्ट्रीय मंडली (युवा हेलेन मिरेन सहित) को 8,500 किमी, सहारन अफ्रीका की साढ़े तीन महीने की यात्रा पर ले गए, जिसमें 12वीं शताब्दी की फारसी की एक कविता द कांफ्रेंस ऑफ़ द बर्ड्स पर आधारित नाटक उन्होंने अपने विशिष्ट दर्शकों के लिए पेश किया।

महाभारत और आलोचनात्मक प्रतिक्रिया

अंतःसांस्कृतिक रंगमंच कहे जाने वाले इस चरण की परिणति महाभारत के एक प्रसिद्ध रूपांतरण में हुई।

1985 में एविग्नन उत्सव में इसका प्रीमियर हुआ (1988 में एडिलेड में इसे पेश किया गया था और 1989 में फिल्माया गया था) कई संस्कृतियों और नाट्य परंपराओं से जुड़े कलाकारों की इस सुंदर नाट्य प्रस्तुति की सुंदरता और मंचन की चहुं ओर प्रशंसा हुई।

हालाँकि, इसने एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया को भी जन्म दिया, जो कि लंबे समय से प्रतीक्षित थी।

हालांकि ऑस्ट्रेलियाई अच्छी तरह से यह जानते थे, कोई ‘खाली स्थान’ नहीं हैं जिसे लिया जा सके। इसी तरह ‘संदर्भों के बाहर’ मौजूद कोई सांस्कृतिक रूप नहीं हैं।

ब्रूक भी इस बारे में अनजान नहीं थे, लेकिन उन्होंने अपनी सार्वभौमिक प्रवृत्ति के साथ स्थानीय विशिष्टता को समाहित करने के लिए संघर्ष किया।

उन्होंने स्वीकार किया कि महाभारत ‘भारत के बिना कभी अस्तित्व में नहीं होता’, फिर भी साथ ही कहा,

‘हमें भारत के सुझाव को इतना मजबूत होने की अनुमति देने से बचना था कि मानव पहचान को बहुत हद तक बाधित किया जा सके।’ आलोचकों की बढ़ती संख्या के लिए, यह न केवल बौद्धिक रूप से अस्थिर था, बल्कि इसमें जटिल ऐतिहासिक गलतियाँ भी थीं।

1990 में, भारतीय थिएटर विद्वान रुस्तम भरूचा ने थिएटर एंड द वर्ल्ड को प्रकाशित किया, जो एशियाई नाट्य रूपों के पश्चिमी विनियोग के खिलाफ एक व्यापक पक्ष था, जो स्टैनिस्लावस्की, ब्रेख्त और आर्टौड में वापस चला गया, और ब्रुक के काम में इसका उदाहरण दिया गया।

भरूचा ने ब्रुक पर भारतीय संस्कृति का तुच्छीकरण और इसे संदर्भहीन करने तथा भारतीय कलाकारों का शोषण करने का आरोप लगाया।

1990 के दशक और नई सहस्राब्दी में, ब्रुक लगातार सक्रिय रहा।

उन्होंने पेरिस में थिएटर डेस बौफ़ेस डू नॉर्ड में क्लासिक और इंटरकल्चरल प्रदर्शन करना जारी रखा।

ब्रुक ने सवाल उठाया कि दर्शकों को थिएटर से क्या उम्मीद करनी चाहिए, लेकिन यह भी कि निर्माता अपने दर्शकों से क्या मांग सकते हैं।

उन्होंने एक ऐसे थिएटर की वकालत की जिसमें एक कठोर रचनात्मक प्रक्रिया कलाकारों द्वारा प्रदर्शन के वर्तमान क्षण के लिए एक पूर्ण प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है। जवाब में, दर्शकों को अपने स्वयं के निवेश, ध्यान और इच्छाओं को लाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

ब्रुक का काम विवाद के बिना नहीं था, लेकिन यह शायद ही कभी थिएटर के निर्माण में मानवीय पक्ष पर बहस के केंद्र से दूर भटका हो।

द कन्वरसेशन एकता एकता

 

(इस खबर को IBC24 टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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