Widowed women yearn for food in Taliban, Doing this work to fill stomach

दाने-दाने के लिए मोहताज हुई यहां की महिलाएं, बच्चों के पेट भरने कर रही ये काम, जानें क्यों बने ऐसे हालात

Widowed women yearn for food in Taliban, Doing this work to fill stomach

Edited By :   Modified Date:  February 4, 2023 / 12:57 PM IST, Published Date : February 4, 2023/12:05 pm IST

नॉर्विच: Widowed women yearn for food हेरात में रह रही विधवा जामिया (बदला हुआ नाम) ने आठ साल पहले एक आत्मघाती हमले में अपने पति को खो दिया था। उसकी 18 वर्षीय एक बेटी है, जो नेत्रहीन है और उसके 20 वर्षीय बेटे ने एक बारूदी सुरंग में विस्फोट के दौरान अपने दोनों पैर गंवा दिए। ‘यूनिवर्सिटी ऑफ हेरात’ में पूर्व लेक्चरर अहमद (परिवर्तित नाम) ने मुझे बताया था कि जामिया घरेलू सहायिका के रूप में काम किया करती थी। वह लोगों के घरों में खाना पकाती थी। इससे होने वाली आय से वह अपनी बेटी और बेटे को दो वक्त की रोटी मुहैया कराने में सक्षम थी, लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत कायम होने के बाद से उसके लिए अपने बच्चों का पेट भरना बेहद मुश्किल हो गया है। अफगानिस्तान में अभी 97 प्रतिशत लोग गरीबी में जी रहे हैं, जबकि 2018 में यह आंकड़ा 72 प्रतिशत था।

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Widowed women yearn for food अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय संगठनों में महिलाओं के काम करने और सार्वजनिक स्थानों पर उनके आने-जाने पर तालिबान द्वारा लगाए गए हालिया प्रतिबंध के बाद उनके लिए काम कर पाना मुश्किल हो गया है। मौजूदा स्थिति के कारण जामिया ने अपने ग्राहक खो दिए हैं और वह इस समय आजीविका कमाने के लिए हर रोज संघर्ष कर रही है। वह मकान का किराया नहीं दे पा रही थी, जिसके चलते मकान मालिक ने उससे घर खाली करने के लिए कह दिया। जामिया अब एक दयालु परिवार द्वारा उनके आंगन में मुहैया कराए गए एक छोटे से कमरे में रह रही है, लेकिन उसकी आय का कोई स्रोत नहीं है।

पहले अफगानिस्तान में लगभग 10 प्रतिशत शिक्षित महिलाएं अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय संगठनों में काम किया करती थीं। यदि वे कम पढ़ी-लिखी होती थीं, तो वे घरेलू सहायिका के रूप में काम करके, खाना पकाकर, कपड़े धोकर, शौचालय साफ करके, दूसरों के बच्चों की देखभाल करके, ग्रामीण इलाकों में छोटे पशुओं की देखभाल करके और गेहूं, मक्का और सब्जियां उगाकर आजीविका कमा लेती थीं।

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जामिया का कहना है कि पूर्ववर्ती सरकार में उसके परिवार को शहीद एवं विकलांग मामलों के राज्य मंत्रालय से मासिक वेतन मिलता था, जो सेवानिवृत्त सैनिकों या लड़ाई में मारे गए लोगों के परिवारों को दिया जाता था, लेकिन नयी सरकार जान की कुर्बानी देने वाले इन लोगों को शहीद नहीं मानती, इसलिए यह पैसा आना बंद हो गया है। जामिया ने कहा कि उसका बेटा शारीरिक रूप से अक्षम अन्य लोगों की तरह पहले नगर निगम के एक कार्यालय की पार्किंग में काम किया करता था, लेकिन अब तालिबान ने वहां अपने लोगों को तैनात कर दिया है। इससे उसकी नौकरी चली गई है और अब वह भीख मांगने को मजबूर है। भीख में उसे जो पैसे मिलते हैं, उनसे परिवार के लोगों के लिए केवल एक दिन की रोटी का इंतजाम हो पाता है।

जामिया कोई अपवाद नहीं है। अफगानिस्तान में हजारों ऐसी महिलाएं हैं, जिन्होंने शासन में बदलाव के कारण अपनी नौकरियां गंवा दी हैं। कई कुपोषण का शिकार हैं और यह भी नहीं जानतीं कि उन्हें अगले वक्त की रोटी मिल पाएगी या नहीं।अकेली रहने वाली महिलाओं और विधवाओं के पास पैसे कमाने का असल में कोई तरीका नहीं है। जमीनी रिपोर्ट से पता चलता है कि कई घरों का पालन-पोषण महिलाएं कर रही हैं, क्योंकि उनके परिवार के पुरुष सदस्य या तो संघर्ष में मारे गए हैं या बुरी तरह से घायल हुए हैं। अहमद ने कहा कि उनके समक्ष केवल भोजन ही नहीं, बल्कि रहने, पानी, ईंधन और सर्दियों से बचने की भी समस्या है।

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तालिबान ने महिलाओं के माध्यमिक और विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा हासिल करने पर प्रतिबंध लगा दिया है और उन्हें महरम (किसी करीबी पुरुष संबंधी) के बिना यात्रा करने की अनुमति नहीं है। तालिबान ने सभी सैलून, सार्वजनिक स्नानघर और महिला खेल केंद्र भी बंद करने का आदेश दिया है, जो महिलाओं को रोजगार देने वाले अहम प्रतिष्ठान थे। संयुक्त राष्ट्र कर्मी और मानवतावादी समन्वयक रामिज अलकबरोव ने कहा, ‘‘अफगानिस्तान में 95 प्रतिशत लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा। महिला-प्रधान परिवारों में यह आंकड़ा लगभग 100 प्रतिशत है।’’

संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधिमंडल ने जनवरी 2023 में तालिबान प्राधिकारियों से महिलाओं एवं लड़कियों के अधिकारों पर लगाए गए प्रतिबंध हटाने की अपील की थी। शिक्षक, पेशेवर और नागरिक समाज के कार्यकर्ता संयुक्त राष्ट्र से मदद की अपील कर रहे हैं, लेकिन बातचीत आगे नहीं बढ़ रही तथा मानवीय सहायता उपलब्ध कराना और चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि खुद जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे स्थानीय समुदाय महिला-प्रधान परिवारों को कब तक मदद मुहैया करा सकते हैं।