meat ban controversy Taste may your choice but food not

मीट बैन दोनों तरफ से खोखली बातें, खानपान नहीं स्वाद निजी मसला होता है…

खानपान को लेकर यह दलील बड़ी अवैज्ञानिक है कि यह सबका वैयक्तिक पसंद का मसला है। असल में खानपान वैयक्तिक पसंद नहीं हो सकता, क्योंकि खानपान शरीर की जरूरत के अनुरूप होता है। प्रकृति ने सबके लिए अलग दैहिक आणविक संरचनाएं बनाई हैं और सामानांतर उनकी आवश्यक्ता के अनुरूप भोजन बनाया है।

Edited By :   Modified Date:  November 29, 2022 / 08:28 PM IST, Published Date : April 6, 2022/4:06 pm IST

-बरुण सखाजी

Meat ban : खानपान को लेकर यह दलील बड़ी अवैज्ञानिक है कि यह सबका वैयक्तिक पसंद का मसला है। असल में खानपान वैयक्तिक पसंद नहीं हो सकता, क्योंकि खानपान शरीर की जरूरत के अनुरूप होता है। प्रकृति ने सबके लिए अलग दैहिक आणविक संरचनाएं बनाई हैं और सामानांतर उनकी आवश्यक्ता के अनुरूप भोजन बनाया है। दरअसल स्वाद आपकी अपनी पसंद जरूर हो सकता है। स्वाद और खानपान में जमीन आसमान का फर्क है। खानपान एक बड़ा दायरा है और स्वाद इस दायरे को सीमित करता है। संभवतः विज्ञान की भाषा में स्वाद बनाया ही इसीलिए गया है, ताकि भोजन की इतनी बड़ी रेंज में कोई भी भटक कर जरूरत को न भूल जाए। ऐसे में प्रकृति में पोषण का बड़ा भारी असंतुलन खड़ा हो जाएगा। प्रकृति के एक छोटा हिस्सा होने के नाते मनुष्य़ों को भी इसकी संचालन विधि का पालन करना होता है। चूंकि हम सोच सकते हैं तो हम अधिक चीजों को चुन पाते हैं। प्रोटीन के लिए कोई मांसाहार की दलील दे तो यह मूर्खता है, क्योंकि एक हाथी हमसे हजारों गुना अधिक बलवान होता है वह भी घासपूस के बल पर, अनाज भी नहीं। यह तो मांसाहार के लिए हमारे गढ़े गए कुतर्क हैं। स्वाद की आजादी सबकी अपनी हो सकती है, लेकिन इसमें कस्टमाइजेशन खानपान को लेकर नहीं है। प्रकृति की सीख के मुताबिक तो खानपान की श्रृंखला में से ही आपको अपना पसंदीदा स्वाद चुनना होता है।

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Meat ban : खाद्य श्रृंखला में स्पष्ट है, किसे क्या खाना चाहिए। विज्ञान कहता है कि जिस शरीर में जितनी भावनाएं हों उसे काटने, चीरने या मारन में उतना ही कष्ट होता है। इस लिहाज से देखें तो मनुष्य के बाद सबसे ज्यादा भावनाएं गाय में होती हैं। विभिन्न धार्मिक कथाएं और वर्तमान के शोध बताते हैं कि गाय के साथ वक्त बिताने से आपका तनाव खत्म होता है। अमेरिका में इस तरह के प्रयोग हुए हैं, जिनके नतीजे बहुत अच्छे आए हैं। अधिक भावनाओं के कारण गाय को कष्ट अधिक होता हैं। मनुष्य तो भावनाओं का पूरा संसार है ही। स्वाभाविक है हमें सबसे ज्यादा कष्ट होता है। एक छोटी चींटी भी हमको काट ले तो हम तिलविला उठते हैं। जबकि गायों में कीड़े, मकोड़े असर नहीं करते, मगर वे हमे और हमारे भाव को समझती हैं। इस तरह से कुत्ते, बंदर, कौवे, बतखों की कुछ प्रजातियां, हंस आदि में भी भावनाएं अच्छी होती हैं। इस थ्योरी के हिसाब से तो पेड़, पौधों में भी भावनाएं होती हैं। लेकिन शरीरधारियों की तुलना में बहुत ही कम। इस लिहाज से सोचें तो शाकाहार भी मांसाहार ही है, क्योंकि वह कम भावनाओं वाली शाक-भाजी खाता है। प्रकृति ने खाद्य श्रृंखला में पौधों को प्राथमिक भोजन के रूप में रखा है। अगर किसी को शाक उपलब्ध ही नहीं है तो वे मछली का आहार उसके लिए ठीक हो सकता है। लेकिन जहां जल नहीं, खेती के लिए मिट्टी नहीं वहां क्या खाया जाए? इसके लिए फिर वही भावनाओं वाला मापदंड होना चाहिए। मछली की अधिकतर प्रजातियों में भी भावनाएं न के बराबर होती हैं। इसी तरह से सांप को भी आहार नहीं बनाया जा सकता।

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हाल ही में मीट बैन को लेकर दो तरह के क्रॉसओवर्स हैं। पहला है कि हम शाकाहारी हैं और नवरात्रि में इस तरह से मांस की बिक्री ठीक नहीं। दूसरा है इससे हमारा व्यवसाय प्रभावित हो रहा है और एक पर्टिकुलर समुदाय को रोधित करने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इन दोनों ही विचारों में सबसे पहली बात तो यह स्वीकार्य नहीं हो सकती कि आप नवरात्रि, पर्युषण या अन्य उत्सवों पर किसी मांसाहार को बाजार से हटवाओ। यह तो बात ठीक है कि आप न खाओ। और इससे भी अच्छी बात यह है कि आप कभी भी मत खाओ। मगर बाजार में भी न हो, यह हठ और मनमानी है। दूसरी बात व्यवसाय प्रभावित होता है या समुदाय विशेष को परेशान करने के लिए ऐसा हो रहा है तो यह भी हास्यास्पद है। भारत की आबादी में समुदाय विशेष महज 17 फीसद तक है। उसमें भी अनेक रिपोर्टों के मुताबिक आर्थिक हालात अपेक्षाकृत इस समुदाय के उतने अच्छे नहीं कि वे शाक की तुलना में मांस को अफोर्ड कर सकें। आमिष आहार शाकाहार की तुलना में अधिक महंगा है। अगर इसकी भारत में इतनी अधिक खपत है तो वह समुदाय विशेष के बल पर नहीं है। यह बात जरूर थोड़ी मानी जा सकती है कि व्यसाय में अधिकतर वही जुड़े हैं। लेकिन इसके कोई पुख्ता आंकड़े नहीं हैं कि कितने लोग प्रभावित होते हैं। मछली उत्पादन में ज्यादातर बहुसंख्य समुदाय के लोगों की मालकियत है। बड़े मीट एक्सपोर्टर्स भी इसी समुदाय के लोग हैं। ऐसे में मीट बैन, दुकानों को बंद करना कोई समुदाय अपने ऊपर क्यों लेता है, यह एक मनोविज्ञानिक बात है।

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असल में हम खानपान को अपनी निजी पसंद कहते हुए बड़े भौंड़े और दोहरे लगते हैं। स्वाद को लेकर तो आप यह दावा कर सकते हैं, मगर खानपान पर यूं दावेदारी ठीक नहीं। गवर्निंग इंस्टीट्यूशन या पुस्तकें तो भी कहती हों, मगर खानपान निजी मसला नहीं है।

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