सरकार बिन शहर…देर हुई…अंधेर न हो! इनकी मांगों को कितनी गंभीरता से लेती है सरकार?
इनकी मांगों को कितनी गंभीरता से लेती है सरकार?! How seriously does the government take demands of representatives?
रिपोर्ट: विवेक पटैया, भोपाल: demands of representatives प्रदेश में पहली बार ऐसे हालात बने हैं कि जब पिछले दो सालों से नगरीय निकायों में जनप्रतिनिधियों की सरकार नहीं है, शहर सरकार अधिकारी चला रहे है। पिछले दो सालो से प्रदेश के 16 नगर निगम सहित नगरपालिका और नगर परिषद के विकास कार्यों की जिम्मेदारी अधिकारियों के पास है। स्थानीय निकायों की शहरी जनता में राजनीतिक दलों के खिलाफ आक्रोश है। लिहाजा पूर्व जनप्रतिनिधियों ने पंचायत प्रतिनिधियों की तर्ज पर अपने अधिकार वापस मांगने के लिए सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
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demands of representatives नियमों के मुताबिक़ हर पांच साल में शहर सरकार चुनने नगरीय निकायों के चुनाव होते हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में 2019 में नगर निगम, नगर पालिका और नगर परिषद के कार्यकाल पूरे होने के बावजूद अब तक चुनाव नहीं हुआ है। निकायों के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को उम्मीद थी सरकार या तो उनका कार्यकाल बढ़ाएगी या चुनाव कराएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और निकायों की कमान अधिकारियों को सौंप दी गई। हालांकि निकायों के पूर्व प्रतिनिधि महापौर, नगर पालिका और नगर परिषद के अध्यक्ष और पार्षद सरकार से कार्यकाल बढ़ाने, अधिकार देने या चुनाव कराने की मांग कर रहे है। पिछले दिनों जनप्रतिनिधियों ने नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह के बंगले का घेराव कर धरना भी दिया था।
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पंचायत चुनाव निरस्त होने के बाद शिवराज सरकार ने पंचायतों के संचालन की जिम्मेदारी पूर्व प्रतिनिधियों को दी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें उनके अधिकार वापस दे दिए थे। लेकिन अब सरकार के सामने नगरीय निकाय के जनप्रतिनिधियों ने अधिकार मांग कर परेशानी खड़ी कर दी है। दरअसल अधिकार मांगने वालों में अधिकतर जनप्रतिनिधि सत्तारूढ़ बीजेपी के है। दूसरी ओर कांग्रेस भी इनकी मांग का समर्थन करते हुए सरकार को घेर रही है। जबकि इस मामले में बीजेपी सरकार का बचाव कर रही है।
मध्यप्रदेश में 16 नगर निगम, 99 नगर पालिका और 292 नगर परिषद हैं जिसकी कमान फिलहाल अधिकारियों के पास है। आरक्षण के मामले में इन चुनावों पर स्टे लगा दिया गया है और मामला अदालत में होने से चुनाव कब होंगे ये तो फिलहात तय नहीं। लेकिन इन निकायों के पूर्व मेयर और अध्यक्षों का सब्र टूटने लगा है। अब अपने अधिकारों को लेकर मुखर भी होने लगे है। अब सवाल यही है कि सरकार इनकी मांगों को कितनी गंभीरता से लेती है?

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